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प्रस्तुत प्रश्न
कर्तव्य निबाहता है,—इसीमें यह गर्भित हो जाता है कि वह समाज-व्यापी अनीतिको बढ़ाता नहीं, घटाता है ।
मानिए कि मैं अहिंसाका कायल हूँ। उस अहिंसाके धर्मके पालनमें, मान लीजिए कि, मैं किसीके तलवारके वारके नीचे मर जाता हूँ।
अब एक तर्क यह हो सकता है कि मैं अगर मरनेके लिए तैयार न होता तो मारनेवाला अपनी तलवारसे मुझे न मार सकता,-अर्थात् हिंसा न कर सकता। इस तरह मैंने अपनी अहिंसाकी भावनाके कारण उसकी हिंसाको उत्तेजना दी ! हिंसाका शिकार होकर मैंने हिंसाको बढ़ावा दिया ! ___ऊपरका तर्क ठीक तभी हो सकता है जब मेरा मरना प्रमाद-वश और भीरुतावश हुआ हो। लेकिन, अगर वह वैसा नहीं है,—स्वेच्छापूर्वक, श्रद्धापूर्वक अगर मैं उस तलवारके नीचे मर सका हूँ,--तो ऊपरका तर्क सर्वथा भ्रान्त हो जाता है । ___ मैं नीतिनिष्ठ रहता हूँ, इतनेमें मेरे अपने जीवनकी उऋणता आ जाती है। ऐसा व्यक्ति, जान पड़ता है, अनीति और असत्यसे जीवनमें सदा ही मोर्चा लेता हुआ दीखगा । सचाईका मार्ग बड़ेसे बड़े योद्धाहीके योग्य है । यह माननेसे भी क्या हाथ आता है कि व्यक्तिके नीति-निष्ठ होने में सिद्धि नहीं है जब कि समाजरचना अशुद्ध है ? क्योंकि, व्यक्तिकी नीति-निष्ठा ही समाजकी शुद्धिका कारण होती है। __ असलमें देखा जाय, तो क्या हम अपने भी हैं ? क्या हम होनहारके हाथकी कठपुतलियाँ नहीं हैं ? बात सच हो, फिर भी इस कारण अपने दायित्वको समाजपर ढालनेकी बुद्धि नहीं की जा सकती। आरंभमें भी कहा जा चुका है कि दोषकी जड़को अपनेमें न खोजकर समाजमें उसे खोजने चलने में त्राण नहीं है । उस तरहकी वृत्तिमें कुछ न कुछ अपनेको खतरेसे बचानेकी, ज्ञात नहीं तो अज्ञात, भावना ज़रूर है।
प्रश्न-समाज-व्यवस्थामें (-Social order में ) परिवर्तन करने न करनेके प्रति भी क्या मनुप्यकी भावनाके हिंसक या अहिंसक होनेका प्रश्न उठता है ?
उत्तर-हिंसा-अहिंसाका प्रश्न, आदमी देखे तो, किसी न किसी रूपमें हर काममें और हर घड़ी उसके साथ रहता है, और रहना चाहिए। यदि आत्म