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प्रस्तुत प्रश्न
ज़मीदारकी नहीं, Commune की है, देशकी है, समाजकी है, या संघकी है। लेकिन, यह भाषाके प्रयोगका बदलना ही है, उससे सचाई बदल गई समझना भ्रम है । हाँ, केवल भ्रम है। स्थितिमें वास्तविक अन्तर उस समय अवश्य आ गया समझना चाहिए जब उस ज़मीनका व्यवस्थापक व्यवस्थामात्रके कर्त्तव्यको तो अपना माने, उससे आगे जमीनपर अपना अधिकार न जाने । मैं नहीं जानता कि स्टेटका एक वेतन भोगी कर्मचारी, जिसका नाम हम चाहे कितना भी सुंदर और कर्तव्य-बोधक ( impersonal ) रक्खें, इच्छा होनेपर क्यों अपने अधिकारका दुर्व्यवहार नहीं कर सकता ? और अगर दुर्व्यवहार करता है, तो, सिवा इसके कि उसका नाम ज़मीदार नहीं है, एक बुरे जमीदारकी तुलनामें उसमें क्या अच्छाई रह जाती है ? । ___ कहनेका यह आशय न समझा जाय कि समाजके विधानमें किसी भी बाहरी परिवर्तनकी आवश्यकता उचित नहीं है । लेकिन, उस परिवर्तनका भी औचित्य जहाँ निहित है, उसकी ओर निगाह रखने की बात मैं अवश्य कहना चाहता हूँ।
प्रश्न-जब आप मनुप्यकी आपा-धापीका कारण वृत्तिको बतलाते हुए कार्य-कारणके सिद्धान्तका सहारा लेते ही हैं, तो फिर वृत्तिका भी कोई कारण बतलानेसे क्यों इंकार करते हैं ?
उत्तर-इंकार नहीं करता। पर, किसीका अंतिम कारण पकड़ा जा सकेगा, या मैं पकड़ कर दिखा सकता हूँ,—इस बारेमें अवश्य अपनी और मानवकी असमर्थता स्वीकार करता हूँ।
लेकिन, इस असमर्थतासे उबरनेका सीधा-सा उपाय भी तो हरेकके हाथमें है, और मानव-गत अंतिम सत्य भी वही है। अपने सारे सोचने-विचारने, करनेधरनेका आधार मैं स्वयं ही हूँ। सबसे अंतिम सत्य मेरे पास 'मैं' है। इसलिए, हर बुराईका आदि कारण मैं अपनेको मानूँ और पाऊँ, मेरे लिए सर्वोत्तम सत्य यही है। कोई प्रश्न समक्ष आये तो उसका सच्चा उत्तर अंतमें इसी स्वरूपमें समझ मिलेगा कि ' मुझको' ऐसा, अथवा वैसा मालूम होता है । उसी उत्तरमेसे फिर व्यक्तिगत प्रश्न बन खड़ा होगा कि अब मैं क्या करूँ ? इस 'क्या करूँ ?' के प्रश्नका जो तात्कालिक समाधान नहीं करता मालूम होता, वह समाधान सच्चा भी नहीं है। इसलिए, जब यह दीख पड़ा कि मुझमें लोभके कारण आपा-धापीकी वृत्ति है,