________________
शासन-तंत्र-विचार
२३
तो, अपने से बाहर कहीं उसका दोष टाल देनेसे मेरा काम नहीं चलनेका | लाख वैज्ञानिक कही जानेवाली विचार धाराका यह तकाज़ा हो कि लोभनीय पदार्थ होनेके कारण ही लोभ मुझमें हो सका है, फिर भी, मुझे उस वैज्ञानिकतासे संतोष नहीं होना चाहिए | मेरा तर्क तो यह होना चाहिए कि मुझमें लोभ न होता, तो कोई पदार्थ लोभनीय होता ही कैसे ? हम देखें, कि दूसरा ही तर्क प्रेरक हो सकता है । – मैं तो मानता हूँ कि सत्य तर्क भी वही है ।
इसलिए, उस वृत्तिका कारण हमें जितना भी चाहें खोजें, पर मेरा आग्रह है कि उसको अपने भीतर ही खोजें तो ठीक होगा । बाहर खोजने से विज्ञान बढ़ सकता है, पर भलाई नहीं बढ़ सकती । और हम जानते हैं कि विज्ञान से भलाई बढ़े तब तो उसमें अर्थ है, नहीं तो विज्ञान व्यर्थ है ।
अन्त में यही निर्णय हाथ रहा न कि व्यक्ति में आपा-धापीकी वृत्ति है जिसे कम करते चलना चाहिए ?
वह क्यों है ?- कह दो, क्योंकि अभी पशुता है, क्यों कि जड़ता है, माया है, अविद्या है, असत्य है, आदि आदि । किंतु, दीख पड़ेगा कि यह शृंखला कार्य-कारणकी (Cause and effectकी ) नहीं है, बल्कि कारण ही कारण की है । इस तरह, चाहे बीच मेंसे ही क्यों न हो, हम किसी भी कारणकी कड़ीको ले बैठें तो हर्ज नहीं है । आदि कारण पानेका आग्रह दर्शन - शास्त्री को होता है, और वह विशेष प्रेरक भी नहीं है । जब बुद्धि कार्य-कारण- श्रृंखलाका पसारा ऐसा फैला लेती है कि उसपर विवाद की समाप्ति ही नहीं हो सकती, तब, कर्मके अर्थमें तो उसका परिणाम शून्य ही रहता है । इसीसे बौद्ध पांडित्य ( 'बौद्ध' धर्म नहीं ) सदा शून्यवादी है ।
प्रश्न- व्यक्तिमें समाजसे अनपेक्षित होकर ऐसी असत् वृत्तियाँ हैं, तो मानना होगा कि वे उसके मूल स्वभावमें हैं । तब तो, उनके दूर करनेका प्रश्न व्यर्थ हो जाता है । क्यों कि हम मानव-स्वभाव स्वीकार करके ही कोई काम कर सकते हैं, इन्कार करके नहीं । और अगर यह मानें कि वे विकारी वृत्तियां हैं, तो, विकार जिस बाहरी संयोगसे पैदा हुआ, उसपर ध्यान देना आवश्यक हो जाता है ।
उत्तर - आदमी सचमुच समाजसे अलग नहीं है । समाजका भाग है, समाजसे अभिन्न है । बेशक विकार पूरी तौरपर 'मैं' की परिभाषा में न समझा जा