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३-देशः इकाई और उसका अंतरंग प्रश्न-राष्ट्र क्या मानव जातिके सुसंगठित जीवनकी जरूरी इकाई है ? क्या वह अपने आपमें द्वन्द्व-युक्त नहीं है ? एक राष्ट्रके भीतर क्या ऐसे वर्ग या श्रेणियाँ नहीं हैं जो आपसमें वमल हों ? ।
उत्तर-पहले ही हमको यह याद रखना चाहिए कि हमारे शब्द हमारे शब्द ( =('oncepts ) हैं । वह शुद्ध सचाई नहीं हैं । Concept अतिम नहीं होगा । वह निरन्तर विकासशील है । ___ राष्ट्र हमारे राजनीतिक व्यवहार के लिए आज एक इकाई बना हुआ है । कुछ सदी पहले राष्ट्रका भौगालिक और राजनीतिक रूप कम था, जातीयरूप अधिक था । हिटलरका अत्याधुनिक राष्ट्रवाद भी एक तरहका जातिवाद है । इस तरह, आज जा ' राष्ट्र से समझा जाता है, पहले ठीक वही नहीं समझा जाता था और आगे भी वही समझा जायगा, एसी आशा नहीं है । इसलिए, राष्ट्र मानवसमाज या मानव-जीवनकी अन्तिम इकाई है,--यह कहना ठीक नहीं है । जो अन्तिम नहीं है, वह शाश्वत भी नहीं है । और ऐसी चीज़ आज जरूरी हो, तो कल गैरजरूरी भी हो सकती है । __ अब प्रश्न यह है कि क्या एक इकाई में दो विरोधी अंश रह सकते हैं ? मैं मानता हूँ कि साम्य वही कीमती है जो दो विषमताओंको मिलाए । विषमताएँ जबतक परस्पर विषम ही हैं, तबतक बेशक साम्य असिद्ध है । लेकिन गहरीसे गहरी विषमताओंमें कहीं एकताका सूत्र न हो, तो वे हो तक नहीं सकती।
शायद ऊपरकी बात कठिन हो गई । हम अपने का लें । मैं अपनेको और आप अपने को एक इकाई मानते हैं न ? हम अपने में एक हैं ही । हमारा वह एकपन अत्यन्त सिद्ध है । ' मैं 'के माने ही, नहीं तो, क्या है ? __ मैं एक हूँ, तब भी अनेक विकल्पोंका युद्ध क्या मेरे भीतर नहीं होता रहता है ? बात-पित्त-कफ़, सत्त्व-रज-तम, ये तीन तत्त्व, तीन गुण, आपसमें तो तीन ही हैं । फिर भी तीनोंका संयोग मुझ एकमें है । वे तीनों भिन्न और विरोधी होकर भी जबतक आपसमें एक-दूसरेके साथ मिलकर रह सकते हैं, तभीतक मेरा,