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प्रस्तुत प्रश्न
समझते जायेंगे वैसे ही क्रमशः यह चुनाव-प्रथा ही आदर्श प्रथा बन जायगी?
उत्तर-किसीको दोषपूर्ण न मानना उतना ही अलाभकारी है जितना उसको निर्दोष मानना । जगत्में जो है, अपूर्ण है । पूर्णता आदर्श-स्थिति है। विशिष्ट परिस्थितियोंमें जो निर्दोष हो, वह उन परिस्थितियोंके आनेके पहले तो सदोष है । अतः, प्रश्न गुण-दोषका नहीं, स्थिति और साधनकी परस्पर विसंगतिका है। चुनाव-सिद्धात अपने आपमें बिचारा खराब क्यों समझा जाय ? यदि ऐसी स्थितिकी कल्पना की जा सके, जहाँ उस प्रथाके दोष सब छूट जाय, लाभ ही लाभ रह जाय, तो मुझे उसमें कोई आपत्ति नहीं रहेगी । पर घटनाके आधारपर जो निर्णय हो, वह क्या कल्पना और संभावनाके आधारपर किया जा सकता है ? फिर भी, निराशाको स्थान नहीं । मार्ग है ही नहीं, ऐसा नहीं । आज भी क्या हमारे बीचमें बिना 'वोट डाले विश्वासका और अधिकारका आदान-प्रदान नहीं होता दीखता है ? प्रत्येक परिवार में कोई एक बजुर्ग होता ही है । क्या परिवारके सब सदस्य कभी एक जगह मिलकर 'बैलट' द्वारा उसे अपना बुजुर्ग या प्रमुख चुनते हैं ? फिर भी, उसकी प्रमुखता बहुत सहज-भावसे निभी चलती है।
इससे, मैं समझता हूँ, कि, चुनावकी प्रथाके और विधानके बिना भी, प्रतिनिधित्वके लाभ उठाये जा सकते हैं ।
प्रश्न-मताधिकार मानवका सिद्ध अधिकार है और चुनावद्वारा उसका अवसर देना भी प्रतिनिधि-शासनके लिए अनिवार्य सिद्धांत होना चाहिए। इसलिए, उसकी राहहीसे चलकर क्यों न संभव दोपोंको दूर करते चलें ? दूसरे, रही परिवारके बुजुर्गकी बात । वह पैतृक रूपमें मिला होता है, और पैतृक प्रभाव ही वहाँ काम करता होता है। फिर भी, सभी परिवारोंमें बुजुर्ग-डम सफल होती नहीं देखी जाती। किंतु, समाजके लिए उस बुजुर्गका भी तो किसी प्रकार निर्णय करना होगा। वह कैसे करें ? __ उत्तर-'वुनावकी प्रथावाले दोपको चुनावद्वारा ही हम कैसे दूर करते चलें, यह मुझे साफ़ नहीं दीखता । धीरजसे, धर्मसे वह काम होगा, यह तो मैं