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४ - शासन- तंत्र - विचार
प्रश्न – दोष वास्तवमें स्वयं लोगोंकी ही अनैतिकताका है, उस प्रथा System का क्या दोष है ? यदि प्रथाका है, तो आप अन्य कौन-सी प्रथा तजवीज़ करेंगे ?
उत्तर - दोष किसका कहा जाय ? विज्ञान- शुद्ध यह कहना होगा कि चुनावविधान और एतत्कालिक लोक-स्थिति, ये दोनों परस्पर विषम सिद्ध हो रहे हैं ।
लोगोंको विधान के अनुकूल बनाया जाय या विधानको ही लोकस्थितिके अनुकूल बनाया जाय ? – यह प्रस्तुत प्रश्न नहीं है । और यह व्यावहारिक राजनीतिका भी प्रश्न नहीं है । राजनीतिका सम्बन्ध तात्कालिक संभव से है, आगामी उचित नहीं ।
आज सचमुच राह नहीं सूझती कि चुनाव - प्रथा से किस रूप में समझौता करें कि उसके दोपसे बचा जा सके और उसकी सुविधाएँ प्राप्त हो जायँ । ऐसा भी मालूम होता है कि लौकिक तलपर, अर्थात् राजनीतिके तलपर, जन-संख्याका सिद्धान्त किसी न किसी रूपमें स्वीकार किये ही गुज़ारा है । क्योंकि, राजनीति लोगों की भौतिक आवश्यकताओंके प्रश्नको सामने रखकर चलनेको बाध्य है; और वैसी आवश्यकताएँ सबमें हैं और सबमें लगभग एक-सी ही हैं । सभीके पेट है, सभीको खाना चाहिए | सभी के तन है, सभीको कपड़ा - लत्ता भी चाहिए । इस मामले में ऊँच-नीच, अमीर-गरीब, दुष्ट साधु सब समान हैं । इस तरह राजनीति मुख्यतः संख्याका प्रश्न है ।
पर संख्या गड़बड़ भी डाल देगी। जन-तंत्र में भीड़-वृतिका फल भी देखने में आता है । डिक्टेटर- शिप उसीकी प्रतिक्रिया है । फिर भी, तमाशा यह है कि, डिक्टेटर मत गणनाके सिद्धांतपर भी अपना समर्थन आवश्यक समझता है ।
इससे मैं सहसा इस सम्बन्ध में कोई सुधारका निश्चित प्रस्ताव सामने नहीं कर सकता । फिर भी मत- गुणनावाले तंत्रसे ( Democracy से ) समाजकी आशाएँ पूरी नहीं हो रही हैं, यह निःसन्देह कहा जा सकता है ।
प्रश्न – चुनाव- सिद्धांतको दोष-पूर्ण न मानकर, क्या हम आशा नहीं कर सकते कि लोग धीरे धीरे जैसे ही वोटका दायित्व
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