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देशका अन्तरंग
उत्तर-नहीं, नैतिक बलपर नहीं टिके हैं । लेकिन अगर नैतिक बलपर नहीं टिके, तो इसका यह भी अर्थ है कि जनतामें नैतिक बल अभी जाग्रत ही नहीं है, वह मूर्छित पड़ा है। मैं तो यह भी कहना चाहता हूँ कि शासक-वर्ग जिस तलपर है, उससे ऊँचे तलका नैतिक बल संगठित नहीं है । इसीका यह परिणाम है कि जो शासक हैं, नीति-बलहीन होकर भी वे शासक बने हैं । हम शासक-वर्गको 'अनैतिक' आसानीसे न कह दें, क्योंकि अगर सचमुच ही कोई नैतिक शक्ति है, तो वह अनीतिस शासित नहीं हो सकती।
प्रश्न-समाजके नतिक वलसे हम ठीकठीक क्या समझें? वह कहाँ निहित रहता है, और शासकपर उसका प्रभाव क्यों कर संभव होता है ?
उत्तर-समाज अपने व्यक्तियोंमे ही जाँची जा सकेगी। दो दाने निकालकर देखनेसे जैमे पकती हुई खिचड़ीका अनुमान किया जाता है, वही उपाय यहाँ है । व्यक्तियोंसे भिन्न समाज क्या है ? और किसी अन्य प्रकार समाज तोला परखा नहीं जा सकता है । वस्तुओं और व्यक्तियोंको विविध मूल्य देनेकी विधिमें उस समाजकी नैतिकताका मान सहज चीन्हा जा सकता है ।
समाजका आसत व्यक्ति जिस अंशतक आत्मनिष्ठ, दूसरेके प्रति उदार, शासनतंत्रके प्रति स्वभावतः निर्भय और कर्तव्यशील हो, उस समाजको उसी अंशमें नैतिक-बल संयुक्त कहना चाहिए । ___ अगर समाजके सब व्यक्ति नैतिकताके बारेमें जागरूक हैं, तो उस जनसमाजके मध्य कोई रूढ़ शासन संस्था अनावश्यक हो जायगी। क्योंकि नैतिकताका अर्थ है खंडका सम्पूर्ण के प्रति निवेदन और समर्पण।
नैतिकताका अधिष्ठान हृदय है । समाजका हृदय क्या है ? कहना चाहिए कि शिक्षक-वर्ग, लेखक-वर्ग, ब्राह्मण-वर्ग उस समाजका हृदय है। शासक-वर्ग समाजके बाहु हैं। बाहु-बल हृदय-बलके वशसे बाहर हो तो उस समाजको ज्वरग्रस्त कहना चाहिए । __ शासनके प्रति नैतिक बल या नैतिक जनका क्या रुख हो ? स्पष्ट है कि शासन उसके निकट सेवाके दायित्वका ही दूसरा नाम है। जहाँ जन-सेवाकी भावना नहीं है वैसे शासनके प्रति नीति-भावना-प्रधान पुरुष निर्भीक • परंतु सद्भावनाशील रहेगा।