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देशका अन्तरंग
• Anumom
__ अब क्या हो ? क्या मैं उस अमरीकनका मित्र न हो जाऊँ ? क्या यह मित्रता अनुचित है ? क्या यह असंभव है कि वही हिन्दुस्तानी मेरे निकट बिल्कुल अपरिचित रह जाय और मुझमें और उस अमरीकनमें गाढ़ी मैत्री हो जाय ? मैं मानता हूँ कि वैसी मैत्री अनुचित नहीं है, बल्कि खूब उचित है।
अब समझिए कि अमरीका और हिन्दुस्तान लड़ पड़े। ( यह कहनेकी भाषा है । असलमें हिन्दुस्तान और अमरीका लड़ ही नहीं सकते । लड़ना तो लड़ना, वे आपसमें जितने हैं उससे एक इंच दूर या पास नहीं हो सकते । लड़ते लड़नेवाले हैं, जिनको सरकारें तनख्वाह देकर लड़ाती हैं। ऐसी लड़ाईके वक्त मैं हिन्दुस्तानी क्या करूँ ? स्पष्ट है कि लड़ाईको चाहे लड़नेवाले कितना ही घमासान बना दें, पर अमरीकनके साथ मेरी मैत्री गाढ़ीसे तनिक भी कम गाढ़ी नहीं होनी चाहिए । फिर भी, हिन्दुस्तानके प्रति मेरा लगाव कम नहीं हो सकता । मैं देशकी चाल-ढाल रखेंगा, देशका खद्दर पहनूँगा, मेरे व्यावहारिक प्रेमका लाभ पड़ोससे मिलना आरंभ होगा, और वहींसे जड़ बसाकर फैलेगा। देश-प्रेमका सच्चा अर्थ पड़ोसी-प्रेम है । विदेशसे युद्ध, उसका झूठा अर्थ है ।
प्रश्न-शासन-यंत्रका आरंभ व्यक्तिकी अधिकार-भावनाके आधारपर हुआ या समाज-विकासकी आवश्यकताके रूपमें हुआ ?
उत्तर-अगर हम इतिहासको केवल अतीतका बखान न मानकर उसमें किसी प्रकारके चरितार्थकी संभावना मानते हैं, तो, कहना होगा, कि शासनसंस्था विकास-शील विकासकी राहमें ही बन खड़ी हुई है। उस संस्था में परिवर्त्तन बराबर होते आये हैं । देखा जाय, तो ये परिवर्तन मनमाने नहीं हैं, उनमें क्रम और संगति है । पहले मुखिया सरदार ही राजा होता था जो कोरा हाकिम समझा जाता था। अब वह सेवक भी माना जाने लगा है। पहले वह सबको सब-कुछ देनेवाला समझा जाता था, अब अगर राजा है भी तो आम लोगोंकी सभा ( Puliament ) खुद उसका भत्ता बाँधती और पास करती है। राजा नामका 'राजा' है, उसका अधिकार आज साफ़ तौरपर प्रजामेंसे उसे प्राप्त होता है।
विकासके अनुकूल जब कि शासन-यंत्रमें विकास होता गया, तब बेशक इसको भी एक ऐतिहासिक सत्य मानना होगा कि शासन-सत्ताका बीजरूपसे