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प्रस्तुत प्रश्न
आरंभ व्यक्तिकी अधिकार-भावना से हुआ। एक गुट्टके सरदारने अपना बल दूसरे सरदारसे लड़कर आजमाया । जो जीता, वह दूसरे गुटका भी मालिक बन रहा । पहले राज्य सचमुच ऐसे ही बने होंगे। लेकिन, इसका इतना ही मतलब है कि समाज-विकास इच्छा-वासनाओंद्वारा चलनेवाले व्यक्तियोंके कृत्योंद्वारा ही अपनेको सम्पन्न करता गया । अर्थात् , इतिहासका हेतु समष्टिगत है । वह समष्टिगत हेतु व्यक्तियोंद्वारा निष्पन्न होता है। व्यक्ति स्वयं जिस भावनासे कर्म करता है, उस भावनामें ऐतिहासिक तथ्यका मूल्य नहीं पायगा । ___ इसीसे किन्हीं बड़े लोगोंको बड़े बड़े परिवर्तनों के कर्त्ता माननकी आदत अब इतिहाम-शास्त्रमें कम होती जाती है । तनिक अलग होकर देखें, बड़ी पृष्ठ-भूमिपर देखें, तो व्यक्ति साधन-मात्र रह जाता है और इतिहासका उद्देश्य व्यक्तिमें बन्द नहीं जान पड़ता, वह इतिहास-भरमें व्याप्त होता है।
प्रश्न-शासक अपने किस वलपर समाजसे अधिकार प्राप्त करता है?
उत्तर-इस बलका स्वरूप बदलता चला जा रहा है । पशु-बलकी जगह अधिकाधिक नैतिक बलकी मान्यता होती जाती है । असलमें प्रगति स्थूलसे सूक्ष्मकी और चलने में है। जहां तक आम जनताका मानसिक विकास हो जाता है, ठीक उसी तलका बल जिन लोगों में अधिक है, वे उस कालके शासक बन जाते हैं । आज कोई मारने-काटने की ताकतके बलपर बड़ा हो सकता है, यह विश्वसनीय नहीं जान पड़ता । लेकिन पहले ऐसा हो सकता था। ___ शासकमें, यह तो साफ़ ही है कि, शासितकी अपेक्षा बलकी अधिकता होगी।
अब ज्ञान और बल ये दो चीजें हैं । ज्ञान सक्रिय होनेपर प्रबल होता है, निष्क्रिय ज्ञान निर्बल है । इसलिए यह तो हो सकता है (और होगा) कि पशुबलकी जगह नैतिक बलके हाथमें शासन हो जाय । पर यह ध्यान रखने की बात है कि नैतिक बल चाहिए, नैतिक ज्ञान काफ़ी नहीं। कोरा नैतिक ज्ञान पशु-बलको हरा नहीं सकता । हाँ, नीतिका अगर सच्चा बल हो, तो उसके आगे पशुबल तो हारा ही रक्खा है।
प्रश्न-आज जो शासक हम देखते हैं, क्या वे विल्कुल नैतिक बलपर टिके हैं ? यदि ऐसा है तो क्या हम हरेक राज्यको संतोषपूर्ण न माने ?