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देशों का पारस्परिक सम्बन्ध
आदमी नहीं बढ़ गये हैं कि घमासान मचे ही मचे | दुनिया के आदमियों के रहने का ढंग ही बिगड़ा हुआ है जिससे एक ओर लोग अधपेट रहते हैं तो दूसरी ओर लाखों टन खाद्यसामग्री समुद्र में डुबो दी जाती है । समाधान तो समस्याओंका है और फिर मानव मस्तिष्क विज्ञानकी नई नई सूझें देता है जो हर संकटमें हमारी मददको उपस्थित हैं । लेकिन, आपसकी आपा-धापीको क्या किया जाय ? वह ऐसी चीज़ है जो विज्ञानको भी संहारक गैस और अन्य शस्त्रों के आविष्कार करने से साँस नहीं लेने देती । मानवको तो परमात्माने अपनी ओर से बुद्धि दे दी है, कल्पना दे दी है । उसीसे वह आपसमें मार-काट करने लग जाय, तो परमात्माकी देनका क्या कसूर है ? प्रश्न है, उस देनको मानवकी वासनास छुट्टी क्योंकर मिले कि फिर वह सर्व-हित-साधन के काम में आये ।
यह तब होगा जब कि हम कहेंगे कि अच्छा, हम अपने से ही ममता छोड़ते हैं । ममता छोड़ते हैं, कर्तव्य नहीं छोड़ते । कर्तव्य छोड़ने से तो अवश्य हमारे साथ अभाव ही अभाव रहेगा | कर्तव्य करने और ममत्व छोड़ने से अभाव पास भी नहीं फटकेगा और कर्म - दुफळसे भी हमें छुटकारा मिलेगा ।
आवश्यकताएँ कम होनेका अर्थ उनका ऊँचे उठ जाना है । इस लिहाज़से आर्थिक आवश्यकताएँ कम करना ज्ञान-विज्ञानकी आवश्यकताएँ बढ़ाने के बराबर भी हो सकता है । अर्थात् नीचे तलकी आवश्यकताएँ जितनी कम होंगीं, उतनी ही ऊँचे तलकी आवश्यकताएँ प्रकट होंगी । भौतिक परिग्रह कम होगा तभी अधिकाधिक ज्ञान-लाभके लिए मानव अथवा राष्ट्र अवकाश प्राप्त होगे । मुझे ऐसा मालूम होता है कि अर्थ- शास्त्रका अध्ययन धीमे-धीमे कम और कर्तव्यशास्त्रका मनन शनैः शनैः बढ़ना चाहिए |
प्रश्न – किसी राष्ट्रको अन्य राष्ट्रसे, जरूरतोंको पूरी करनेके बदलें, अधिक से अधिक लेनेकी भावना रहती है । इसी कारण उन मुल्कोंमें व्यापारकी प्रेरणा भी है। स्वार्थ के बिना कोई मुल्क क्यों किसीको कुछ देने को तैयार होगा ? - तव किस भाँति स्वार्थको व्यापारका आधार होनेसे रोका जाय ?
उत्तर - हाँ, यह प्रश्न है । आप शायद चाहेंगे कि स्व और स्वार्थ के तल से हटकर इस प्रश्नका हल हम न सोचें । अर्थ- शास्त्र के तलपरं ही उसे सोचना अर्थकारी होगा ।