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२-विविध देशः उनका पारस्परिक सम्बन्ध
प्रश्न-किसी देशकी अपनी आवश्यकताका अर्थ क्या समझा जायगा?
उत्तर--देशकी अपनी आवश्यकताओंके बारेमें निर्णायक उस देशको ही होने देना होगा, निर्णायक मैं नहीं हो सकता। यहाँ मुख्य बात वृत्तिकी है। देशके सब लोगोंको जरूरी खाना-पीना और कपड़ा और सामाजिक विस्तृति
और मानसिक उन्नतिकी सुविधा होने का मौका होना चाहिए । आवश्यकताओंकी मर्यादा पदार्थोकी गिनतीद्वारा नहीं बाँधी जा सकती । सच तो यह है कि धीमे धीमे विकासके साथ 'सरकार' नामकी चीज़ लुप्त हो जायगी। सरकार माने बाहरी शासन । भीतरी शासनकी कमी है, इसीसे तो बाहरी शासन ज़रूरी हो जाता है । उस बाह्य शासनका अभिप्राय है, अन्तस्थ शासनको जगाने और मजबूत बनानेमें सहायक होना । जो सरकार यह नहीं करती वह भूल करती है । जैसे जैसे अन्तः शासन जागेगा, वैसे ही वैसे बाह्य उपादान कम होते दीखेंगे । इसलिए, जब कि यह नहीं कहा जा सकता कि गणनामें देशकी आवश्यकताएँ क्या हैं, तब यह अवश्य कहा जा सकता है कि प्रत्येक देशको उत्तरोत्तर स्वायत्त शासनकी
ओर बढ़ना चाहिए । उसकी ओर बढ़ते हुए देशका परिग्रह ( और वैसा भौतिक परिग्रह ही उस देशके आर्थिक प्रश्नको खड़ा करता है) कम होता जायगा । देशकी आर्थिक समस्या तब बिखरकर खुलती ( D. centralized होती) जायगी। वह एक सिमटी गुत्थीकी गाँठकी भाँति नहीं रहेगी। पार्थिव लालसाएँ व्यक्तिकी कम होंगी, क्यों कि उनकी जरूरत न रहेगी और व्यक्तिकी सामान्य आवश्यकताएँ व्यक्तिके थोड़े परिश्रमसे अनायास पूरी हो जाया करेंगी। उसके लिए State Planning दरकार न होगा। जब आर्थिक चिन्ता न रही, तब देशकी चिन्ता सास्कृतिक हो रहेगी । और इस चिन्ताके फलस्वरूप ज्ञान-विज्ञान कला-साहित्य जन्म लेंगे। प्रश्न-किसी पीड़ित देशका संपन्न देशके प्रति क्या भाव रहेगा?
उत्तर-जिसे अभावका बोध होता है ऐसा देश संपन्न मुल्कोंकी तरफ़ थोड़े बहुत जलन-कुढ़नके भावसे देखेगा । पर यह अभावका बोध प्राप्त वस्तुओंकी