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देशः उसकी स्वाधीनता
अनीति बरती है, वह एक दिन उसके लिए पछताएगा भी। वह दिन कुछ जल्दी या कुछ देरमें भले आता दीग्वे ।
लेकिन प्रश्न फिर भी रहता है कि अनीतिके मदमें भूले हुए देशको शिक्षा देनेका क्या कोई उपाय नहीं है ? है तो क्या ? क्या शक्ति निरंकुश खुल खेले ? __ मैं मानता हूँ कि उपाय है और वह उपाय हाथपर हाथ धरे बैठना नहीं है । सबसे बड़ा अकुंश लोकमत है । सभ्यता एक तल तक उन्नत हुए लोकमतका ही नाम है । सभ्य व्यक्ति क्यों बर्बर आचरण नहीं करता ? कौन उसको रोकता है ? सबसे बड़ी रोक उसके लिए यही है कि वह सभ्य समाजका सदस्य है। वह यह नहीं बरदाश्त कर सकता कि वह अपनेको असभ्य पाये अथवा असभ्य समझा जाय।
रोग तो असलमें यह है कि मदमत्त शक्तिको प्रशंसाका वातावरण मिल जाता है। उसके प्रदर्शन और प्रचारसे लोगोंके सिर फिर जाते हैं । किताबोंपर किताबें, अवधारपर अखबार और मदकी गर्जनाएँ,-मौका ही नहीं छूटता कि कोई याद रक्खे कि यह सब थोथी हीनताका द्योतक भी हो सकता है । जन-सामान्यमें निष्ठा की शिथिलताके कारण विज्ञापन और कोलाहलका बोलबाला हो चलता है । ___ इससे, पहला उपाय यह है कि आदमी अपना दिमाग सही रक्खे । सारी दुनिया चाहे लड़े, पर मैं शांत रहूँ । ' शांत'से मतलब है स्थिर-संकल्प । आदि कालसे मानवकी चरमानुभूतिने हमें बताया है कि प्रेम सत्य है, धर्म ऐक्य है। वह बात भाई भाई और जाति जातिको लड़ते देखकर हम क्यों भूल जायें ? यह खून-खराबी सतहपर होती रहे, पर गहरी सचाई तो वही है । उसपर पक्की तौरपर हम श्रद्धा रख सकते हैं।
ऐसे श्रद्धावान् लोग आस-पास के वातावरणमें अनुकूल विचार पैदा करेंगे। इसी विधि धीमे धीमे लोकमत बनेगा । इसमें समय लगेगा अवश्य, पर समय किस काममें नहीं लगता ? एक बार लोकमत इस बारेमें जाग जाय, तो कौन मनुष्य फिर खुलमखुल्ला पशुकी तरह व्यवहार करनेपर गर्व करेगा? तब यह निरी असंभवता ही होगी । मानवके भीतर पशुता है, पर वह उस पशुतामें मनुष्यताका गौरव माने, यह अचिंतनीय बात जान पड़ती है। और अगर आज ऐसा है तो मुझे पक्का विश्वास है कि निकट भविष्यमें ऐसा नहीं रहनेवाला है। उसके लिए कितनोंको मौतके घाट उतरना पड़ेगा,-कहना कठिन है । पर,