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प्रस्तुत प्रश्न
देशपर उसे लोभकी अथवा आक्रमणकी लालसा न हो । क्योंकि अगर वैसी लालसा है, तो उतने अंश में उसको स्वस्थ नहीं कहना होगा । वह पराधीन है,परकी तृष्णा के अधीन ।
प्रश्न - क्या किसी देश अथवा भूमि खंडके लिए किसी अन्य देशसे जीवन की आवश्यकताके लिए कोई अपेक्षा करना अनुचित होगा ? यदि नहीं, तो कहाँ तक ?
उत्तर - वैसी अपेक्षा अनुचित नहीं है । इतना ही नहीं, बल्कि अनिवार्य भी
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है । मैंने पहल कहा, भूमिमें खंड नहीं है । वे हैं, तो बस कल्पित हैं । हम तमाम भूमिकी एकताको सहने योग्य सामर्थ्य शायद नहीं रखते हैं, इसीलिए देश और विदेश हमारे प्रयोजनार्थ संभव बने हुए हैं । वे सब आपस में असल में तो एक हैं ही । इसलिए, विविध देशों में वैसे सब परस्पर संबंधोंको घनिष्ठ बनाते जाना होगा जो परस्परकी सहानुभूति और मेल-जोलको बढ़ाते हैं । उनको मैं कहूँ नैतिक । और ऐसे संबंधोंको वर्जनीय ठहराना होगा जो आपस में द्वेष भाव बढ़ाते हैं । उनको कहिए सामरिक, सैनिक। दो देशोंका सामरिक सम्बन्ध, गुप्तचरोंका सम्बन्ध, कूटनीति (= Diplomacy) का संबंध झुटा है। वे ही आपसी सम्बन्ध सच्चे हैं जो सांस्कृतिक हैं ।
प्रश्न - तो क्या जो देश अपनी आवश्यकता से अधिकपर एकाधिकार किये हुए है, उसको उन्हें छोड़ने पर मजबूर करना अनैतिक होगा ? होगा, तो फिर दूसरा क्या उपाय होगा ?
उत्तर—मजबूर करनेमें अगर भाव है जबरदस्ती, तो सूरत यह हो जाती है कि एक देशकी जबरदस्ती और धाँधलीका निवारण करनेके लिए अन्य देश मिलकर उसके साथ ज़बरदस्तीका व्यवहार करें। मैं यह मानता हूँ कि ऐसे उस देशको दण्डित किया जा सकता है, पर जबरदस्तीकी भावना इस प्रकार उसमें मंद नहीं की जा सकती । धाँधलीसे धाँधली मिटेगी नहीं, बढ़ेगी ही । हिंसा से हिंसा मिटाने का स्वप्न प्रवंचना है । जिसने अपने पाचन - सामर्थ्य से अधिक अपने पेटमें डाल लिया है, वह उसी कारण एक न एक दिन बीमार दिखाई देगा । आवश्यकतासे अधिक बटोरने और कब्ज़ा कर रखनेकी लालसा में ही कब्ज़ा कर रखनेवालेकी मौत के बीज हैं, इस बारे में मेरे मन में सन्देह नहीं । आज जिसने