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प्रस्तुत प्रश्न
गणनापर अवलंबित नहीं है। यह तो लालसाकी तीव्रताके अनुपात में होता है । संतोष बड़ा गुण है। धनवान् कब असंतुष्ट नहीं होता ? इसका यह मतलब नहीं कि भूखेको संतोषी रहनेके लिए कहा जा रहा है, बल्कि आशय यह है कि संतोषी होने के लिए यह कहा जा रहा है कि कोई भूखा न रहे । भूखमें संतोष और कठिन होता है । इसलिए भूख है, तो खाना अवश्य चाहिए । उसके लिये प्रयत्न भी चाहिए । परन्तु फिर भी उसकी तृष्णा नहीं चाहिए । यह कुछ हम गहरी बहसमें जा रहे हैं । जो कहा, उसका अर्थ यह हो जाता है कि जो आवश्यकताएँ हैं, उन्हें हम पूरी अवश्य करें और वैसा करने के लिए कुछ उठा भी न रक्खें । फिर भी, उनके प्रति ममत्व न रक्खें, अर्थात् उनके जुटान में विवेक-हीन न हो जायें । अपनी जरूरतें पूरी करनेमें हम जिस तिस उपायका आश्रय नहीं ले सकते । उपाय वैध ही काममें लाये जायेंगे ।
इसको स्पष्ट करने के लिए उदाहरणसे काम लें। एक मुल्कमें अन्न कम होता हैं और जनसंख्या बढ़ती जाती है । उस मुल्कके पास कला-कौशल है, कोयले
और धातुकी बहुतायत है । यह तो है, पर अपने वाशिन्दोंके खानेका सामान पूरा नहीं है और रहने की भी मुश्किल होती जाती है। अब स्पष्ट है कि उस मुल्कको अपने कला-कौशलका लाभ और अपने यहाँके कोयले और धातुकी अधिकताका लाभ और मुल्कोंको देना चाहिए । एवज़में वहाँसे अन्न-खाद्यका लाभ प्राप्त कर लेना चाहिए । जनसंख्या उस मुल्ककी बहुत ही बढ़ती जाती है, तो उन्हें बाहर फैलना चाहिए । मैं समझता हूँ, विवेकसे काम लेने पर यह भी संभव नहीं रहेगा कि कोई मुल्क भूखा नंगा रहे । ___ पर मान ही लाजिए, ( जो कि एकदम गलत है) कि ऐसे पूरा खाद्य नहीं जुटता तब कहना मुझे यह है कि मुल्क भूखको सह सकता है, लेकिन दूसरे मुल्कोको लूट नहीं सकता । उनपर चढ़ाई करके उनको गुलाम नहीं बना सकता । अपनी भूखके नामपर, अपनी आवश्यकताके नामपर, दूसरेपर अत्याचार नहीं किया जा सकेगा। यह जो आजकल उपनिवेश रखनेका रिवाज है, उसमें कुछ साम्राज्य विस्तारकी गंध है । इससे उसका समर्थन भी कठिन है । __ मेरे खयालमें सब देश अपने ऊपर यदि अकाटय कुछ नैतिक मर्यादाएँ स्वीकार कर लें, तो आत्म-विकासकी और उपनिवेशोंकी माँगकी आजकी अन्तराष्ट्रीय समस्याका सच्चा सीधा सुलझाव भी नजर आ जायगा । दुनिया में इतने