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४० कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
पाँच मूल कर्मों के अनुसार अध्रुवबन्धिनी प्रकृतियाँ इन अध्रुवबन्धिनी प्रकृतियों में नामकर्म की सर्वाधिक प्रकृतियाँ हैं, शेष वेदनीय, आयु, गोत्र एवं कुछ मोहनीय कर्म की उत्तरप्रकृतियाँ हैं। इनका अपनी-अपनी मूल. कर्म प्रकृति के साथ विवरण इस प्रकार है
(१) वेदनीय की दो-सातावेदनीय और असातावेदनीय।
(२) मोहनीय की सात-हास्य, रति, अरति, शोक, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद।
(३) आयुकर्म की चार-नरकायु, तिर्यंचायु, मनुष्यायु और देवायु।
(४) नामकर्म की अट्ठावन-तीन आद्य शरीर, तीन आद्य अंगोपांग, छह संस्थान, छह संहनन, एकेन्द्रियादि पाँच जाति, चार गति, दो विहायोगति, चार आनुपूर्वी, तीर्थकरनाम, आतप, उद्योत, उच्छ्वास, पराघात, त्रसदशक, स्थावददशक।
(५) गोत्रकर्म की दो- उच्चगोत्र और नीचगोत्र। यों मूलकर्मों के अनुसार २+७+४+५८+२-७३ प्रकृतियाँ अध्रुवबन्धिनी हो जाती
इन प्रकृतियों को अध्रुवबन्धिनी क्यों माना जाए? इन प्रकृतियों को अध्रुवबन्धिनी मानने का कारण यह है कि बन्ध के सामान्य कारणों के रहने पर भी इनका बन्ध नियमित रूप.से, निश्चितरूप से नहीं होता। १. (क) तणुवंगा-गिइ-संघयण-जाइ-मइ-खमइ-पुन्वि-जिणुसासं।
उज्जोयायव-परघा-तसवीसा गोय वयणिय॥३॥ हासाइ-जुयल-दुग-वेय-आउ तेवुत्तरी अधुवबंधा ॥ ४॥
-पंचम कर्मग्रन्थ विवेचन, पृ. १५, १६ (ख) दिगम्बर परम्परा में ११ प्रकृतियाँ अप्रतिपक्षी और ६२ प्रकृतियाँ सप्रतिपक्षी
(विरोधिनी) बताई गई हैंसेसे तित्थाहारं परघाद-चउक्क सव्व आऊणि। अपडिवक्खा, सेसा सप्पडिवक्खा हु बासट्ठी॥
-गोम्मटसार (कर्मकांड) गा. १२५ (ग) सदशक-त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय और
यशः कीर्ति। (घ) स्थावरदशक-स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और अयश:कीर्ति नामकर्म।
-देखें, कर्मग्रन्थ प्रथम भाग गा. २६, २७ For Personal & Private Use Only
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