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२४ कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१) जिस (दूसरे) के लिए हैं, वह पुरुष (आत्मा) है (२) जो सत्त्व, रज, तम, तीनों गुणों से भिन्न होता है, वह पुरुष है, (३) बुद्धि-अहंकारादि का अधिष्ठाता पुरुष है, (४) बुद्धि आदि दृश्य पदार्थों का जो दृष्टा (भोक्ता) है, वही पुरुष है। (५) कैवल्य (मोक्ष) के लिए प्रवृत्ति मनुष्यों में होने से सिद्ध है कि प्रकृति आदि से भिन्न पुरुष का अस्तित्व है ।' न्याय-वैशेषिक दर्शन में आत्मा की सिद्धि
न्याय और वैशेषिक दर्शन में इस प्रकार के अनुमान प्रमाण द्वारा आत्मा का अस्तित्व सिद्ध किया है कि प्राणापान, निमेषोन्मेष, जीवन, इन्द्रियान्तर-विकार, इच्छा, द्वेष, ज्ञान, संकल्प आदि लिंगों (हेतुओं) से लिंगी (साध्य) आत्मा की सत्ता सिद्ध होती है। मीमांसादर्शन में आत्मा की अस्तित्व सिद्धि
मीमांसादर्शन के पुरस्कर्ताओं ने दो युक्तियों द्वारा आत्मा का अस्तित्व सिद्ध किया है-(१) यज्ञ एक कर्म है। कर्म का कर्ता और फल भोक्ता कोई न कोई अवश्य होता है। अतः कर्मों का करने वाला और उनका फल भोगने वाला शरीरादि से भिन्न आत्मा नामक स्वतंत्र तत्त्व है। (२शबर स्वामी ने मानस प्रत्यक्ष के द्वारा आत्मा का अस्तित्व सिद्ध किया है। . अद्वैत-वेदान्त दर्शन द्वारा आत्मा की सिद्धि
वेदान्त दर्शन में आत्मा का अस्तित्व स्वतःसिद्ध माना गया है। आत्मा स्वयं अपना अनुभव करता है, कि मैं हूँ, आदि। यदि आत्मा को ज्ञाता और अनुभवकर्ता नहीं माना जाएगा तो उसे किसी भी ज्ञेयं विषय का ज्ञान नहीं हो सकेगा। अतः ज्ञाता एवं अनुभव कर्ता के रूप में आत्मा का अस्तित्व स्वयंसिद्ध है।
दूसरी बात-"सभी को अपनी (आत्मा की) सत्ता की प्रतीति होती है, किसी को यह प्रतीति नहीं होती कि मैं (आत्मा) नहीं हूँ।" इस प्रकार आत्मा की सत्ता स्वप्रतीति से सिद्ध है।' चार्वाक आदि द्वारा आत्मा के स्वतंत्र अस्तित्व का निषेध
उस युग में अनात्मवादी चार्वाक आदि यह नहीं कहते थे कि आत्मा का सर्वथा अभाव है। उनकी मान्यता का निष्कर्ष यह है कि जगत् के
-सांख्यकारिका ११
१ संघातपरार्थत्वात् त्रिगुणादि विपर्ययादधिष्ठानात्।
पुरुषोऽस्ति भोक्तृभावात् कैवल्यार्थ प्रवृत्तेश्च। २ (क) न्यायसूत्र ३/१/१०
(ख) वैशेषिक सूत्र ३/२/४-१३ ३ ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्य १/१/५ पृ. १४ ४ (क) ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्य २/३/७
(ख) सर्वोह्यात्माऽस्तित्वं प्रत्येति, न नाऽहमस्मीति ।
- वही, १/१/१०
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