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कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (6)
३३. पर्यायों द्वारा आत्म द्रव्य की सिद्धि-जीव और शरीर के पर्याय भिन्न भिन्न हैं। जीव के पर्याय हैं-जन्तु, प्राणी, सत्व, आत्मा आदि; जबकि शरीर के पर्याय हैं-काय, देह, वपु, तनु, कलेवर आदि। पर्याय-भेद होने पर अर्थ में भी भेद हो जाता है। यदि पर्याय भेद होने पर भी अर्थ में अभेद हो तो संसार में वस्तुभेद हो ही नहीं सकता। इसलिए शरीर का सहचारी होने से कदाचित् औपचारिक रूप से शरीर को जीव कहा गया हो, पर वस्तुतः जीव
और शरीर भिन्न-भिन्न हैं। ऐसा न हो तो-'जीव तो चला गया, अब शरीर को जला दो', यह व्यवहार संभव नहीं होगा। शरीर और जीव के लक्षण भी भिन्न भिन्न हैं, एक जड़ है, दूसरा ज्ञानादि युक्त चेतन। शरीर मूर्त होने से उसमें ज्ञानादि गुण संभव नहीं। चेतनादि पर्यायों का जो द्रव्य है, वही आत्मा है।'
३४. परलोकी के रूप में आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि-मृत्यु के पश्चात् शरीर को तो यहीं जला दिया जाता है। शुभाशुभकर्मों के प्रभाव से परलोक जाने वाला कोई दूसरा तत्व अवश्य है। और वह है-जीव (आत्मा)। आत्मा (जीव) ही अपने पुण्य-पाप-कर्मानुसार परलोक में जाता है। अगर ऐसा न माना जाएगा तो संसार, बन्ध और मोक्ष की व्यवस्था ही चौपट हो जाएगी।
३५. शरीररथ के सारथी के रूप में आत्मा की अस्तित्व-सिद्धि-जैसे रथ की चलने वाली विशिष्ट क्रिया (प्रतिकूल का त्याग, अनुकूल का ग्रहण) सारथी के प्रयत्नपूर्वक होती है, उसी प्रकार शरीर की व्यवस्थित, हितवर्द्धक विशिष्ट क्रिया भी किसी के प्रयत्नपूर्वक होती है। जिसके प्रयत्न से यह क्रिया होती है, वही आत्मा है। इस प्रकार शरीर-रथ के सारथी के रूप मे आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है।
इसी प्रकार जैसे कठपुतलियों की नेत्रपलकों का खुलना और बंद होना, किसी के अधीन होता है, उसी प्रकार शरीर की निमेषोन्मेष आदि रूप क्रियाएँ भी किसी चेतन के अधीन होनी चाहिए। जिसके अधीन निमेषोन्मेष रूप क्रियाएँ होती हैं, वही आत्मा है।'
इसी प्रकार शरीर के नियंत्रक के रूप में भी आत्मा की सिद्धि होती है। जिस प्रकार रथ का संचालक रथी होता है, उसी की प्रेरणा एवं इच्छा से १ (क) विशेषावश्यक भाष्य (गणधवाद), गा. १५७५-७६ (अनुवाद) पृ. १९
(ख) स्याद्वाद मंजरी कारिका १७ २ अष्टसहस्री (आचार्य विद्यानन्द) पृ. २४८-४९ ३ स्याद्वाद मंजरी का. १७ ४ वही, का. १७
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