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द्रव्यानुयोग में क्रिया का विविध प्रकार से विभाजन उपलब्ध है। जिस निमित्त, हेतु, फल अथवा साधन से क्रिया की जाती है, उसी निमित्त, हेतु, फल अथवा साधन के आधार पर क्रिया का नामकरण कर दिया जाता है। इसलिए क्रिया के अनेक विभाजन हैं। स्थानांगसूत्र में क्रिया को दो प्रकार की कहते हुए दसों विभाजन किये गये हैं। कुछ विभाजन इस प्रकार के हैं, जिनका समावेश क्रिया के पाँच प्रकारों अथवा पच्चीस प्रकारों में हो जाता है। ___ कषाय की उपस्थिति में जो क्रिया होती है वह साम्परायिकी क्रिया कही जाती है तथा जो कषायरहित अवस्था में क्रिया होती है वह ऐर्यापथिकी क्रिया कहलाती है। इसका आशय यह है कि क्रिया कषायनिरपेक्ष है। क्रिया की निष्पत्ति में योग आवश्यक है, कषाय नहीं।
क्रिया के विविध विभाजनों में कायिकी आदि पाँच क्रियाओं का विभाजन प्रसिद्ध है। वे पाँच क्रियाएँ हैं-(१) कायिकी, (२) आधिकरणिकी, (३) प्राद्वेषिकी, (४) पारितापनिकी और (५). प्राणातिपातिकी। जिस क्रिया में काया की प्रमुखता हो उसे कायिकी क्रिया कहते हैं। जो क्रिया शस्त्र आदि उपकरणों से की जाती है उसे आधिकरणिकी क्रिया कहते हैं। जो क्रिया द्वेषपूर्वक की जाती है उसे प्राद्वेषिकी, जो क्रिया दूसरे प्राणियों को कष्टकारी हो उसे पारितापनिकी तथा प्राणियों के प्राणों का अतिपात करने वाली क्रिया को प्राणातिपातिकी क्रिया कहते हैं। जीव के चौबीस ही दण्डकों में ये पाँचों प्रकार की क्रियाएँ पायी जाती हैं।
क्रिया से आस्रव होता है। आम्रव के अनन्तर कर्मबंध होता है। यदि क्रिया कषाययुक्त है तो बंध अवश्य होता है और यदि क्रिया कषायरहित है तो मात्र आम्रव होता है, बंध नहीं। इसलिए दो प्रकार के क्रियास्थान कहे गये हैं-(१) धर्मस्थान और (२) अधर्मस्थान। धर्मपूर्वक की गई क्रिया धर्मस्थान की द्योतक है तथा अधर्मपूर्वक की गई क्रिया अधर्मस्थान की द्योतक है। क्रिया शब्द का प्रयोग चारित्र के अर्थ में भी होता रहा है। इसीलिए 'ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः' अथवा 'नाणकिरियाहिं मोक्खो कथन प्रचलित है। इस प्रकार ज्ञान के आचरण रूप जो चारित्र है वह धर्मस्थान क्रिया है, शेष सब क्रियाएँ अधर्मस्थान के अन्तर्गत समाविष्ट होती हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, विनय, सत्य, समिति, गुप्ति आदि क्रियाओं में रुचि को क्रियारुचि कहा गया है, यह एक प्रकार से धर्मस्थान क्रियारुचि ही है। साधक को अधर्मपरक क्रिया का त्यागकर धर्मपरक क्रिया अपनानी चाहिए। सदोष क्रियाओं का त्याग करना ही साधक के हित में है। आनव
आत्मा के साथ कर्मपुद्गलों के चिपकने को बंध कहते हैं। बंध के पूर्व कर्मपुद्गलों के आगमन को आनव कहते हैं। यदि आम्नव नहीं हो तो बंध भी न हो। बंध के पूर्व आनव का होना अनिवार्य है। कर्मों का आनव सावद्य. या पापकारी क्रियाओं के कारण होता है। आसव के प्रमुख रूप से पाँच द्वार हैं-(१) मिथ्यात्व, (२) अविरति, (३) प्रमाद, (४) कषाय और (५) योग। मिथ्यात्व जीव का जीवन एवं जगत् के प्रति असम्यक् दृष्टिकोण है। दूसरे शब्दों में सम्यक्त्व का विपरीतभाव मिथ्यात्व है। मिथ्यात्वी की कुदेव, कुगुरु एवं कुधर्म पर श्रद्धा होती है, सुदेव, सुगुरु एवं सुधर्म पर नहीं। जीवादि तत्त्वों पर यथार्थश्रद्धा न होना भी मिथ्यात्व है। हिंसादि पापों से विरत न होना अविरति है। प्रमाद का अर्थ है-आत्म-स्वरूप का विस्मरण। क्रोधादि भावों को 'कषाय' कहा जाता है। 'योग' मन, वचन एवं काया की प्रवृत्ति का नाम है। इन पाँच कारणों के अतिरिक्त कारण भी आस्रव के भेदों में बताये गये हैं किन्तु उनका समावेश इन पाँच द्वारों में ही हो जाता है। तत्त्वार्थसूत्र में
आम्नव के इन पाँच द्वारों की गणना बंधहेतुओं में की गई है।२ कर्मग्रन्थ में भी इन्हें बंधहेतु कहा गया है तथा बंधहेतुओं के ५७ भेदों में मिथ्याश्च के ५, अविरति के १२, कषाय के २५ एवं योग के १५ भेदों की गणना की गई है। आसव के द्वार ही एक प्रकार से बंध के हेतु होते हैं, क्योंकि उनके होने पर ही बंध होता है।
- प्रश्नब्याकरणसूत्र में आसव के ये पाँच भेद निरूपित हैं-(१) हिंसा, (२) मृषा, (३) अदत्तादान, (४) अब्रह्म और (५) परिग्रह। इनका वहाँ पर विस्तार से निरूपण है, जिसका समावेश द्रव्यानुयोग के आम्रव अध्ययन में कर लिया गया है। ___यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि योग के दो रूप हैं-शुभ एवं अशुभ। उनमें शुभ योग से पुण्य का आस्रव होता है तथा अशुभ योग से पापकर्म का आम्नव होता है। आम्रव के पश्चात् बंध कषाय से होता है। किसी भी कर्म की स्थिति का बंध कषाय से ही होता है। अनुभाग बंध भी कषाय से होता है, किन्तु प्रकृति एवं प्रदेशबंध योग से होता है। स्थितिबंध का यह नियम है कि जितनी कषाय की तीव्रता होगी उतना ही स्थितिबंध अधिक होगा फिर वह बंध चाहे पुण्यकर्म का हो या पाप प्रकृति का। अनुभागबंध इससे भिन्न है। कषाय के बढ़ने से पापकर्म का अनुभागबंध अधिक होता है तथा कषाय के घटने से पुण्यकर्म का अनुभाग बढ़ता है। ___आस्रव का निरोध संवर कहलाता है। साधक आस्रव को रोककर संवर की साधना करता है। आसव के भेदों से विपरीत संवर के भेद होते हैं। नवतत्त्वों में जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आम्नव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष की गणना होती है। सात तत्त्वों में पुण्य एवं पाप की गणना नहीं होती। तब पुण्य एवं पाप का समावेश आम्नव में कर लिया जाता है। नवतत्त्वों की चर्चा भी द्रव्यानुयोग का विषय है।३
वेद
वैदिक परम्परा में चार वेद प्रसिद्ध हैं-(१) ऋग्वेद, (२) यजुर्वेद, (३) सामवेद और (४) अथर्ववेद। किन्तु जैनदर्शन में 'वेद' शब्द का प्रयोग स्त्री, पुरुष आदि के आपसी सहवास की वासना के अर्थ में हुआ है। दूसरे शब्दों में काम-वासना का अनुभव 'वेद' है। वेद तीन प्रकार
१. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा ३ २. मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगाः बन्धहेतवः। ३. नवतत्त्वों पर डॉ. सागरमल जैन ने द्रव्यानुयोग के प्रथम भाग की प्रस्तावना में विस्तार से विचार किया है।
-तत्त्वार्थसूत्र ८/१
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