________________
१९८४
केसिमेवं बुवाणं तु, गोयमो इणमब्बवी ।
विन्नाणेण समागम्म, धम्मसाहणमिच्छ्रियं ॥ ३१ ॥
पच्चयत्थं च लोगस्स नाणा विहविगप्पणं । जत्तत्थं गहणत्थं च लोगे लिंगप्पओयणं ॥ ३२ ॥
अह भवे पत्रा उ मोक्खसब्यसाहणे ।
नाणं च दंसणं चेव चरितं चेव निच्छए ॥ ३३ ॥
साहु गोयम ! पन्ना ते छिन्नो मे संसओ इमो ।
अन्नो वि संसओ मज्झं, तं मे कहसु गोयमा ! ॥३४॥
३. अणेगाणंसहस्साणं मज्झे चिट्ठसि गोयमा !
तेय ते अहिगच्छन्ति कह ते निजिया तुमे ? ||३५ ॥
एगे जिए जिया पंच पंच जिए जिया दस
दसहा उ जिणित्ताणं, सव्वसत्तू जिणामहं ॥ ३६ ॥
सत्तू य इइ के वुत्ते ? केसी गोयममब्बवी । तओ केसिं बुवंतं तु गोयमो इणमब्बवी ॥३७॥
एगप्पा अजिए सत्तू, कसाया इन्दियाणि य । जिणित्तु जहानायं विहरामि अहं मुणी ! ॥ ३८ ॥
साहु गोयम पत्रा ते छिनो मे संसओ इमो
"
अन्नो वि संसओ मज्झं तं मे कहसु गोयमा ॥ ३९ ॥
४. दीसन्ति बहवे लोए, पासबद्धा सरीरिणो ।
मुक्कपासो लहुब्भूओ कह तं विहरसी मुणी ॥४०॥
"
ते पासे सव्वसो छित्ता निहन्तूण उवायओ । मुक्कपासो लहुब्भूओ, विहरामि अहं मुणी ॥ ४१ ॥
पासा य इह के वृत्ता ? केसी गोयममब्बवी ।
सिमेवं बुवतं तु गोयमो इणमब्बवी ॥४२ ॥
रागद्दोसादओ तिब्बा, नेहपासा भयंकरा छिन्दित्तु जहानायं विहरामि जहक्कमं ॥४३ ॥
साहु गोयम ! पन्ना ते, छिन्नो मे संसओ इमो । अन्नो वि संसओ मज्झं तं मे कहसु गोयमा ॥ ४४ ॥
द्रव्यानुयोग- ( ३ )
( गौतम गणधर - ) केशी के इस प्रकार कहने पर गौतम ने यह कहा" (सर्वज्ञों ने) विज्ञान (-केवलज्ञान) से भलीभाँति यथोचितरूप से धर्म के साधनों (वेष, चिन्ह आदि उपकरणों) को जानकर ही उनको अनुमति दी है । " ॥ ३१ ॥
अनेक प्रकार के उपकरणों का विधान लोगों की प्रतीति के लिए संयमयात्रा के निर्वाह के लिए और "मैं साधु हूँ" यथा प्रसंग इस प्रकार का बोध रहने के लिए ही लोक में लिंग (वेष) का प्रयोजन है ॥ ३२ ॥
निश्चयदृष्टि से तो सम्यक् ज्ञान, दर्शन और चारित्र ही मोक्ष के वास्तविक साधन हैं। इस प्रकार का एक-सा सिद्धान्त दोनों तीर्थंकरों का है ॥ ३३ ॥
(केशी कुमारश्रमण - ) " हे गौतम ! आपकी प्रज्ञा श्रेष्ठ है। आपने मेरा यह संशय दूर कर दिया। मेरा एक और भी संशय है, है गौतम ! उस सम्बन्ध में भी मुझे बताइये | ॥३४॥
३. "गौतम ! अनेक सहस्त्र शत्रुओं के बीच में आप खड़े हों। वे आपको जीतने के लिए ( आपकी ओर दौड़ते हैं। फिर भी आपने उन शत्रुओं को कैसे जीत लिया ?” ॥ ३५ ॥
( गणधर गौतम) एक को जीतने से पाँच जीत लिए और पाँच को जीतने पर दस जीत लिए । दसों को जीत कर मैंने सब शत्रुओं को जीत लिया ॥ ३६ ॥
(केशी कुमार श्रमण - ) " गौतम (१-५-१० ) शत्रु किन्हें कहा है ?" इस प्रकार केशी ने गौतम से पूछा। तब गौतम ने उनसे इस प्रकार कहा- ॥३७॥
( गणधर गौतम - ) हे मुनिवर ! एक न जीती हुई आत्मा शत्रु है। कषाय (चार) और इन्द्रियाँ (पाँच) नहीं जीतने पर शत्रु हैं। उन्हें जीतकर मैं (शास्त्रोक्त नीति के अनुसार अप्रतिबद्ध होकर बिहार करता हूँ ॥ ३८ ॥
(केशी कुमारश्रमण - ) हे गौतम! आपकी प्रज्ञा समीचीन है, (क्योंकि) आपने मेरा यह संशय मिटा दिया (किन्तु) मेरा एक और भी सन्देह है। हे गौतम! उस विषय में भी मुझे बताएँ ॥ ३९ ॥
४. इस लोक में बहुत से शरीरधारी जीव पाशों (बन्धनों) से बद्ध दिखाई देते हैं। हे मुने ! आप बन्धन से मुक्त और लघुभूत ( हल्के) होकर कैसे विचरण करते हैं ? ॥ ४० ॥
( गणधर गौतम ) " हे मुने मैं उन पाशों (बन्धनों को सब प्रकार से काटकर तथा उपायों द्वारा विनष्ट कर बन्धन मुक्त एवं लघु भूत होकर विचरण करता हूँ ॥ ४१ ॥
(केशी कुमार श्रमण - ) हे गौतम ! पाश (बन्धन) किन्हें कहा गया है ? (इस प्रकार ) केशी ने गौतम से पूछा। उनके पूछने पर गौतम ने "इस प्रकार कहा- ॥४२॥
( गणधर गौतम) तीव्र राग-द्वेष और स्नेह भयंकर पाश (बन्धन) हैं। उन्हें (शास्त्रोक्त) धर्मनीति के अनुसार काटकर मैं क्रमानुसार विचरण करता हूँ॥४३॥
(केशी कुमारश्रमण-) गौतम ! आपकी प्रज्ञा सुन्दर है। आपने मेरा संशय मिटा दिया, परन्तु हे गौतम ! मेरा एक और सन्देह है उसके विषय में भी मुझे कहिए ॥ ४४ ॥