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१९८६ कुप्पहा बहवो लोए, जेहिं नासन्ति जंतवो। अद्धाणे कह वट्टन्ते तं न नस्ससि गोयमा ! ॥६०॥
जे य मग्गेण गच्छन्ति,जे य उम्मग्गपट्ठिया। ते सव्वे विइया मज्झं, तो न नस्सामहं मुणी॥६१॥
मग्गे य इह के वुत्ते? केसी गोयममब्बवी। केसिमेवं बुवंतं तु गोयमो इणमब्बवी ।।६२ ।। कुप्पवयण-पासण्डी सव्वे उम्मग्गपट्ठिया। सम्मग्गं तु विणक्वायं एस मग्गे हि उत्तमे ॥६३॥ साहु गोयम ! पन्ना ते, छिन्नो मे संसओ इमो। अन्नो वि संसओ मझं,तं मे कहसु गोयमा !॥६४॥
महाउदग-वेगेणं बुज्झमाणाण पाणिणं। सरणं गई पइट्ठा य, दीवं कं मन्नसी मुणी ॥६५॥ अस्थि एगो महादीवो वारिमज्झे महालओ। महाउदगवेगस्स गई तत्थ न विज्जई ॥६६॥ दीवे य इइ के वुत्ते ? केसी गोयममब्बवी। केसिमेवं बुवंतं तु गोयमो इणमब्बवी ॥६७॥
जरा मरणवेगेणं बुज्झमाणाण पाणिणं। धम्मो दीवो पइट्ठा य, गई सरणमुत्तमं ॥६८॥
द्रव्यानुयोग-(३) ८. "हे गौतम ! संसार में अनेक कुपथ हैं, जिन पर चलने से
प्राणी भटक जाते हैं। आप उस मार्ग पर चलते हए भी कैसे नहीं भटके?" ||६०॥ (गौतम गणधर-) "हे मुनिवर ! जो सन्मार्ग से चलते हैं और जो उन्मार्ग से चलते हैं, वे सब मेरे जाने हुए हैं, इसलिए मैं भ्रष्ट नहीं होता हूँ।"॥६१॥ केशी ने गौतम से पुनः पूछा-“मार्ग किसे कहा गया है?" केशी के इस प्रकार पूछने पर गौतम ने यह कहा-॥६२॥ (गणधर गौतम-) कुप्रवचनों (मिथ्यादर्शनों) को मानने वाले सभी पाषण्डी उन्मार्गगामी हैं, सन्मार्ग तो वीतराग द्वारा कथित है और यही मार्ग उत्तम है॥६३॥ (केशी कुमारश्रमण--) "हे गौतम ! आपकी प्रज्ञा प्रशस्त है। आपने मेरा यह सन्देह मिटा दिया किन्तु मेरे मन में एक और सन्देह है, उसके विषय में भी मुझे कहिए।" ||६४॥ "हे मुनिवर ! महान् जलप्रवाह के वेग से बहते हुए प्राणियों के लिए शरणगति प्रतिष्ठा और द्वीप आप किसे मानते हो?" ||६५॥ (गणधर गौतम-) जल के मध्य में एक विशाल महाद्वीप है। वहाँ महान् जलप्रवाह के वेग की गति (प्रवेश) नहीं है ॥६६॥ (केशी कुमारश्रमण-) केशी ने गौतम से (फिर) पूछा-"महाद्वीप आप किसे कहते हैं ?" केशी के ऐसा पूछने पर गौतम ने यों कहा-॥६७॥ (गणधर गौतम-) जरा और मरण (आदि) के बेग से बहते हुए प्राणियों के लिए धर्म ही द्वीप है, प्रतिष्ठा है, गति है तथा उत्तम शरण है।६८॥ (केशी कुमारश्रमण-) "हे गौतम ! आपकी प्रज्ञा श्रेष्ठ है, आपने मेरा संशय निवारण कर दिया। परन्तु मेरा एक और संशय है, हे
गौतम ! उसके सम्बन्ध में भी मुझे बताइए।" ॥६९॥ १०. महाप्रवाह वाले समुद्र में नौका डगमगा रही है (ऐसी स्थिति में) आप
उस पर आरूढ़ होकर कैसे (समुद्र) पार कर सकोगे? ॥७०॥ (गणधर गौतम-) जो नौका छिद्रयुक्त है, वह (समुद्र के) पार तक नहीं जा सकती, किन्तु जो नौका छिद्ररहित है वह (समुद्र) पार जा सकती है॥७१॥ केशी ने गौतम से पूछा-“आप नौका किसे कहते हैं ?" केशी के यों पूछने पर गौतम ने इस प्रकार कहा-॥७२॥ (गणधर गौतम-) “शरीर को नौका कहा है और जीव (आत्मा) को इसका नाविक कहा है तथा संसार को समुद्र कहा गया है, जिसे महर्षि पार कर जाते हैं।" ॥७३॥ (केशी कुमारश्रमण-) गौतम ! आपकी प्रज्ञा श्रेष्ठ है। आपने मेरे इस संशय को मिटा दिया, किन्तु मेरा एक और संशय है। उसके
विषय में भी आप मुझे बताइए॥७४।। ११. घोर एवं गाढ़ अन्धकार में (संसार के) बहुत-से प्राणी रह रहे हैं।
(ऐसी स्थिति में) सम्पूर्ण लोक में प्राणियों के लिए कौन उद्योत (प्रकाश) करेगा ॥७५॥ (गणधर गौतम--) समग्र लोक में प्रकाश करने वाला निर्मल सूर्य उदित हो चुका है, वही समस्त लोक में प्राणियों के लिए प्रकाश प्रदान करेगा ॥७६॥
साहु गोयम ! पन्ना ते, छिन्नो मे संसओ इमो। अन्नो वि संसओ मज्झं, तं मे कहसु गोयमा! ॥६९॥
१०.अण्णवंसि महोहंसि नावा विपरिधावई।
जंसि गोयममारूढो कहं पारं गमिस्ससि ?॥७० ॥ जा उ अस्साविणी नावा, न सा पारस्स गामिणी। जा निरस्साविणी नावा, सा उ पारस्स गामिणी॥७१ ।।
नावा य इइ का वुत्ता? केसी गोयममब्बवी। केसिमेवं बुवंतं तु गोयमो इणमब्बवी ॥७२॥ सरीरमाहु नाव ति, जीवो वुच्चइ नाविओ। संसारो अण्णवो वुत्तो, जंतरन्ति महेसिणो॥७३॥
साहु गोयम ! पन्ना ते, छिन्नो मे संसओ इमो। अन्नो वि संसओ मज्झं, तं मे कहसु गोयमा !॥७४ ।।
११. अन्धयारे तमे घोरे, चिट्ठन्ति पाणिणो बहु।
को करिस्सइ उज्जोयं सव्वलोगमि पाणिणं? ॥७५ ॥
उग्गओ विमलो भाणू, सव्वलोगप्पभंकरो। सो करिस्सइ उज्जोयं सव्वलोगंमि पाणिणं ॥७६॥