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१९८८
द्रव्यानुयोग-(३)
करेत्ता जाव तिविहाए पज्जुवासणयाए पज्जुवासंति पज्जुवासित्ता एवं वयासी
प. संजमे णं भंते ! किं फले? तवे णं भंते ! किं फले?
तए णं ते थेरा भगवंतो ते समणोवासए एवं वयासी
उ. संजमे णं अज्जो ! अणण्हयफले, तवे वोदाणफले।
तए णं ते समणोवासया थेरे भगवंते एवं वयासी
प. जइ णं भंते ! संजमे अणण्हयफले, तवे वोदाणफले किं पत्तियं
णं भंते ! देवा देवलोएसु उवज्जंति? तत्थ णं कालियपुत्ते नाम थेरे ते समणोवासए एवं वयासी
उ. पुव्वतवेणं अज्जो ! देवा देवलोएसु उववज्जति।
तत्थ णं मेहिले नाम थेरे ते समणोवासए एवं वयासी
पुव्वसंजमेण अज्जो ! देवा देवलोएसु उववज्जति।
तत्थ णं आणंदरक्खिए णाम थेरे ते समणोवासए एवं वयासी
उठा और उन्होंने स्थविर भगवन्तों की दाहिनी ओर से तीन बार प्रदक्षिणा की और प्रदक्षिणा करके यावत् तीन प्रकार की उपासना द्वारा उनकी पर्युपासना की और पर्युपासना करके फिर इस प्रकार पूछाप्र. भंते ! संयम का क्या फल है ? भंते ! तप का क्या फल है?
इस पर स्थविर भगवन्तों ने उन श्रमणोपासकों से इस प्रकार
कहाउ. "हे आर्यों ! संयम का फल अनाश्रवता (आश्रवरहितता
संवरसम्पन्नता) है। तप का फल व्यवदान (कर्मों को क्षय) करना है। (स्थविर भगवन्तों से यह उत्तर सुनकर) श्रमणोपासकों ने उन
स्थविर भगवन्तों से (पुनः) इस प्रकार पूछाप्र. भंते ! यदि संयम का फल अनाश्रवता है और तप का फल
व्यवदान है तो देव देवलोकों में किस कारण से उत्पन्न होते हैं ? (श्रमणोपासकों का प्रश्न सुनकर) उन स्थविरों में से
कालिकपुत्र नामक स्थविर ने उन श्रमणोपासकों से यों कहाउ. आर्यों ! पूर्वतप के कारण देव देवलोकों में उत्पन्न होते हैं।
उनमें से मेहिल (मेधिल) नाम के स्थविर ने उन श्रमणोपासकों से इस प्रकार कहा"आर्यों ! पूर्व संयम के कारण देव देवलोकों में उत्पन्न होते हैं।" उनमें से आनन्दरक्षित नामक स्थविर ने उन श्रमणोपासकों से इस प्रकार कहा"आर्यों ! कर्मिता (कर्म शेष रहने) के कारण देवता देवलोकों में उत्पन्न होते हैं।" उनमें से काश्यप नामक स्थविर ने उन श्रमणोपासकों से यों कहाआर्यों ! संगिता (रागआसक्ति) के कारण देव देवलोकों में उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार हे आर्यों !(वास्तव में) पूर्व तप से, पूर्व संयम से, कर्म क्षय न होने पर तथा राग आसक्ति से देवता देवलोकों में उत्पन्न होते हैं। यह बात (अर्थ) सत्य है और हमने अपना आत्मभाव (अपना अहंभाव) बताने की दृष्टि से नहीं कही है। तत्पश्चात् वे श्रमणोपासक, स्थविर द्वारा (अपने प्रश्नों के) कहे हुए इन और ऐसे उत्तरों को सुनकर बड़े हर्षित एवं सन्तुष्ट हुए और स्थविर भगवन्तों को वंदन नमस्कार किया
और वन्दना नमस्कार करके अन्य प्रश्न भी पूछते हैं, प्रश्न पूछकर फिर स्थविर भगवन्तों द्वारा दिये गये उत्तरों को ग्रहण करते हैं ग्रहण करके वे वहाँ से उटते हैं और उठकर तीन बार वन्दना नमस्कार करते हैं वंदना नमस्कार करके वे उन स्थविर भगवन्तों के पास से और उस पुष्पवतिक चैत्य से निकलकर जिस दिशा से आए थे उसी दिशा में वापस लौट गए। इधर वे स्थविर भगवन्त भी किसी एक दिन तुंगिका नगरी के उस पुष्पवतिक चैत्य से निकले और वाहर (अन्य) जनपदों में विचरण करने लगे।
कम्मियाए अज्जो ! देवा देवलोएसु उववति।
तत्थ णं कासवे णाम थेरे ते समणोवासए एवं वयासी
संगियाए अज्जो ! देवा देवलोएसु उववजंति,
पुव्वतवेण पुव्वसंजमेणं कम्मियाए संगियाए अज्जो ! देवा देवलोएसु उववति।
सच्चे णं एस अटे, नो चेवणं आयभाववत्तव्वयाए।
तए णं ते समणोवासया थेरेहिं भगवंतेहिं इमाई एयारूवाई वागरणाई वागारिया समाणा हट्टतुट्ठा थेरे भगवंते वंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता पसिणाई पुच्छंति, पुच्छित्ता अट्ठाई उवादियंति उवादियत्ता उट्ठाए उतॄति उद्वित्ता थेरे भगवंते तिक्खुत्तो वंदति णमंसंति वंदित्ता णमंसित्ता थेराणं भगवंताणं अंतियाओ पुप्फवइयाओ चेइयाओ पडिनिक्खमंति पडिनिक्खमित्ता जामेव दिसिं पाउब्भूया तामेव दिसि पडिगया।
तए णं ते थेरा अन्नया कयाइ तुंगियाओ पुष्फवइचेइयाओ पडिनिग्गच्छति पडिनिग्गच्छित्ता बहिया जणवयविहारं विहरंति।