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परिशिष्ट : ३ धर्मकथानुयोग
तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नाम नयरे होत्था जाव परिसा पडिगया। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेटे अंतेवासी इंदभूई नाम अणगारे जाव संवित्तविउलतेयलेस्से छटुंछट्टेणं अनिक्वित्तेणं तवोकम्मेणं मंजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे जाब विहरइ।
तए णं से भगवं गोयमे छट्ठक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ, बीयाए पोरिसीए झाणं झियायइ, तइयाए पोरिसीए अतुरियमचवलमसंभंते मुहपोतिय पडिलेहेइ. पडिलेहित्ता भायणाई वत्थाई पडिलेहेइ, पडिलेहित्ता भायणाई पमज्जइ, पमज्जित्ता भायणाई उग्गाहेइ उग्गाहेत्ता, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी
"इच्छामि ण भंते ! तुभेहिं अब्भणुण्णाए छद्रुक्वमणपारणसि रागिहे नगरे उच्च-नीय-मज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणम्स भिक्खायरियाए अडित्तए।"
"अहामुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिवंधं करेह।"
१९८९ ] उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था। वहाँ (श्रमण भगवान महावीर स्वामी पधारे। परिषद् वन्दना करने गई (यावत्) धर्मोपदेश सुनकर) परिषद् वापस लौट गई। उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी (शिष्य) इन्द्रभूति नामक अनगार थे यावत् "वे विपुल तेजोलेश्या को अपने शरीर में संक्षिप्त करके रखते थे। वे निरन्तर छट्ठ-छट्ठ (बेले-बेले) के तपश्चरण से तथा संयम
और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए यावत् विचरते थे। इसके पश्चात् छट्ठ (बेले) के पारणे के दिन भगवान (इन्द्रभूति) गौतम स्वामी ने प्रथम प्रहर में स्वाध्याय किया, द्वितीय प्रहर (पौरुषी) में ध्यान किया, तृतीय प्रहर (पौरुषी) में मानसिक चपलता से रहित, आकुलता से रहित होकर मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना की, प्रतिलेखना कर पात्रों और वस्त्रों की प्रतिलेखना की, प्रतिलेखना कर पात्रों का प्रमार्जन किया और पात्रों का प्रमार्जन कर उन पात्रों को लिया, लेकर जहाँ श्रमण भगवान महावीर स्वामी विराजमान थे वहाँ आये, वहाँ आकर श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दननमस्कार किया और वन्दन नमस्कार करके इस प्रकार निवेदन किया"भंते ! आज मेरे छ? तप (बेले) के पारणे का दिन है, अतः आपसे आज्ञा प्राप्त होने पर मैं राजगृह नगर में उच्च, नीच और मध्यम कुलों के गृहसमुदाय में भिक्षाचर्या की विधि के अनुसार भिक्षाटन करना चाहता हूँ।" (इस पर भगवान ने कहा-)“हे देवानुप्रिय ! जिस प्रकार तुम्हें सुख हो वैसे करो, किन्तु विलम्ब मत करो।" तब भगवान की आज्ञा प्राप्त हो जाने के बाद भगवान गौतम स्वामी श्रमण भगवान महावीर स्वामी के पास से तथा गुणशील चैत्य से निकले और निकलकर त्वरा (उतावली) चपलता (चंचलता) और संभ्रम (आकुलता) से रहित होकर युगान्तर (गाड़ी के जुए धूसर-) प्रमाण दूर (अन्तर) तक की भूमि का अवलोकन करते हुए अपनी दृष्टि से आगे-आगे के गमन मार्ग का शोधन करते हुए जहाँ राजगृह नगर था, वहाँ आए और आकर (राजगृह में) ऊँच, नीच और मध्यम कुलों के गृह-समुदाय में विधिपूर्वक भिक्षाटन करने लगे। उस समय (राजगृह नगर में) भिक्षाटन करते हुए भगवान गौतम ने बहुत से लोगों के मुख से इस प्रकार के शब्द सुने"हे देवानुप्रिय ! तुंगिका नगरी के बाहर पुष्पवतिक नामक उद्यान में भगवान पार्श्वनाथ के शिष्यानुशिष्य स्थविर भगवन्त पधारे थे उनसे वहाँ के श्रमणोपासकों ने इस प्रकार प्रश्न पूछे"भंते ! संयम का क्या फल है, भंते ! तप का क्या फल है?' तब (उत्तर में) स्थविर भगवन्तों ने उन श्रमणोपासकों से इस प्रकार कहा"आर्यों ! संयम का फल अनाश्रवत्व (संवर) है और तप का फल व्यवदानत्व (कर्मों का क्षय) है। यह सारा वर्णन पूर्व तप से, पूर्व संयम से, कर्मिता और संगिता से देवता देवलोकों में उत्पन्न होते हैं पर्यन्त करना चाहिए.यह बात सत्य है. इसलिए हमने कही है, हमने अपने अहंभाव वश यह बात नहीं कही है तो मैं (गौतम) यह (इस जनसमूह की) बात कैसे मान लूँ।
तए णं भगवं गोयमे समणेणं भगवया महावीरेणं अभणुण्णाए ममाणे समणम्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ गुणसिलाओ चेइया ओ पडिनिक्वमइ पडिनिक्वमित्ता अतुरियमचवलमसंभंते जुगंतरपलोयणाए दिट्ठीए पुरओ रियं सोहेमाणे सोहेमाणे जेणेव रायगिहे नगरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता रायगिहे नगरे उच्च-नीय-मज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणम्स भिक्खायरियं अडइ।
तए णं से भगवं गोयमे रायगिहे नगरे जाव अडमाणे बहुजणसई निसामेइ, "एवं खलु देवाणुप्पिया ! तुंगियाए नगरीए बहिया पुष्फवईए चेइए पासाच्चिज्जा थेरा भगवंतो समणोवासएहिं इमाई एयाम्वाइं वागरणाई पुछिया"मंजमे णं भंते ! किंफले,तवेणं भंते ! कि फले ?" तए ण ते थेरा भगवंतो ते समणोवासए एवं वयासी
"गंजमे णं अज्जो । अणण्हयफले. तवे वोदाणफले तं चेव जाव पुब्बतवेणं पुव्वसंजमेणं कम्मियाए संगियाए अज्जो ! देवा देवलोएम उववजात, सच्चे णं एसमटे णो चेव णं आयभाववत्तव्बयाए से कहमेयं मन्ने एवं?