Book Title: Dravyanuyoga Part 3
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj & Others
Publisher: Agam Anuyog Prakashan

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Page 579
________________ २०३४ उवासगाणं पडिमासु, भिक्खूणं पडिमासु य भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मण्डले ॥११॥ किरियासु भूयगामेसु, परमाहिम्मिएसु य । जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मण्डले ॥१२॥ गाहासोलसएहिं तहा असंजमम्मि य । जे भिक्खु जयई निच्वं, से न अच्छ मण्डले ॥१३॥ भम्म नायज्झयणे, ठाणेसु य समाहिए। जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मण्डले ॥१४॥ एगवीसाए सबलेसु, बावीसाए परीसहे । जे भिक्खू जयई निच्च से न अच्छ मण्डले ॥१५ ॥ " तेवीस सूचगडे, रूचाहिए सुरेसु य जे भिक्खू जयई निच्च, से न अच्छइ मण्डले ॥१६ ॥ पणवीस - भावणाहिं, उद्देसेसु दसाइणं । जे भिक्खू जयई निच्च, से न अच्छइ मण्डले ॥१७॥ अणगारगुणेहिं च, पकप्पम्मि तहेव य । जे भिक्खू जयई निच्च से न अच्छा मण्डले ॥१८॥ पावसुयपसंगेसु, मोहट्ठाणेसु चेव य । जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मण्डले ॥१९॥ सिद्धाइगुणजोगेसु तेत्तीसासायणासु य । जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मण्डले ॥२०॥ इह एएसु ठाणेसु जे भिक्खू जयई सया । विभ्यं से सब्वसंसारा वियमुच्चइ पण्डिओ ॥२१॥ भाग १, पृ. १२६ सम्माई तिविहा रूईया - सूत्र २१२ (ख) तिविहा रूई पण्णत्ता, तं जहा१. सम्मरूई, २. मिच्छरूई, -त्ति बेमि - उत्त. अ. ३१, गा. ३-२१ ३. सम्मामिच्छरूई । -ठाणं अ. ३, उ. १, सु. १९० भाग १, पृ. ४१६ मेहुण वडियाए पसुपक्खिपाईणं इंदियजायं फास पायच्छित्तं सूत्र ६२१ (ख) निग्गंथीए य राओ वा वियाले वा उच्चारं वा पासवणं वा द्रव्यानुयोग - (३) जो भिक्षु (ग्यारह ) उपासक प्रतिमाओं में और (ग्यारह ) भिक्षु प्रतिमाओं में सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रहता ॥ ११॥ जो भिक्षु (तेरह) क्रिया स्थानों में (चौदह प्रकार के) भूतग्रामों ( जीवसमूहों) में तथा (पन्द्रह ) परमाधार्मिक देवों में सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रहता ॥ १२ ॥ जो भिक्षु गाथा षोडशक (सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कंध के सोलह अध्ययनों) में और (सत्रह प्रकार के) असंयम में उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रहता ॥ १३ ॥ जो भिक्षु (अठारह प्रकार के) ब्रह्मचर्य में (उन्नीस) ज्ञातासूत्र के अध्ययनों में तथा बीस प्रकार के असमाधिस्थानों में सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रहता ॥ १४ ॥ जो भि इक्कीस शबल दोषों में और बाईस परीषहों में सदैव उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रहता ॥ १५ ॥ जो भिक्षु सूत्रकृतांग के तेईस अध्ययनों में तथा सुन्दर रूप वाले चौबीस प्रकार के देवों में सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रहता ॥ १६ ॥ जो भिक्षु पच्चीस भावनाओं में तथा दशा आदि ( दशाश्रुतस्कन्ध, व्यवहार और बृहत्कल्प) के (छब्बीस) उद्देशों में सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रहता ॥ १७॥ जो भिक्षु (सत्ताईस) अनगारगुणों में और ( आचार प्रकल्प ) आचारांग के अट्ठाईस अध्ययनों में सदैव उपयोग रखता है, यह संसार में नहीं रहता ॥ १८ ॥ जो भिक्षु (उनतीस प्रकार के ) पापश्रुत प्रसंगों में और (तीस प्रकार के) मोह स्थानों (महामोहनीयकर्म के कारणों) में सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रहता ॥ १९ ॥ जो भिक्षु सिद्धों के (इकतीस) अतिशायी गुणों में (बत्तीस) योगसंग्रहों में और तेतीस आशातनाओं में सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रहता ॥ २० ॥ इस प्रकार जो पण्डित (विवेकवान्) भिक्षु इन (तेतीस ) स्थानों में सतत उपयोग रखता है, वह शीघ्र ही समग्र संसार से विमुक्त हो जाता है ॥२१॥ - ऐसा में कहता हूँ । सम्यक् आदि तीन प्रकार की रुचियाँ तीन प्रकार की रुचि (दृष्टि) कही गई है, १. सम्यगुरुचि, यथा २. मिथ्यारुचि, ३. सम्यग् मिथ्यारुचि । मैथुन भाव से पशु-पक्षियों के इन्द्रिय स्पर्श का प्रायश्चित्त यदि किसी निर्ग्रन्थी के रात्रि में या विकाल में मल-मूत्र का परित्याग

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