Book Title: Dravyanuyoga Part 3
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj & Others
Publisher: Agam Anuyog Prakashan

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Page 564
________________ [ परिशिष्ट : ३ गणितानुयोग २०१९ ५. तीसे णं समाएं तओ वंसा समुप्पज्जित्था, तं जहा१.अरहंतवंसे,२. चक्कवट्टिवंसे,३.दसारवंसे,तीसे णं समाए तेवीसं तित्थयरा, इक्कारस चक्कवट्टी, णव बलदेवा, णव वासुदेवा समुप्पज्जित्था। तीसे णं समाए एक्काए सागरोवमकोडाकोडीए बायालीसाए वाससहस्सेहिं ऊणिआए काले वीइक्कते अणंतेहिं वण्णपज्जवेहिं तहेव जाव परिहाणीए परिहायमाणे-परिहायमाणे एत्थ णं दूसमाणामं समा काले पडिवज्जिस्सइ समणाउसो! प. तीसे णं भंते ! समाए भरहस्स वासस्स केरिसए आयारभावपडोयारे भविस्सइ? उ. गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे भविस्सइ, से जहाणामए आलिंगपुक्वरेइ वा, मुइंगपुक्खरेइ वा जाव णाणामणिपंचवण्णेहिं कित्तिमेहिं चेव, अकित्तिमेहिं चेव। तीसे णं भंते ! समाए भरहस्स वासस्स मणुआणं केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते? गोयमा ! तेसिं मणुयाणं छविहे संघयणे, छव्विहे संठाणे, वहुइओ रयणीओ उद्धं उच्यत्तेणं जहण्णेणं अंतोमुहतं, उक्कोसेणं साइरेगं वाससयं आउयं पालेति पालेत्ता अप्पेगइया णिरयगामी जाव सव्वदुक्खाणमंत करेंति। तीसे णं समाए पच्छिमे तिभागे गणधम्मे, पासंडधम्मे, रायधम्मे, जायतेए धम्मचरणे वोच्छिज्जिस्सइ। तीसे णं समाए एक्कवीसाए वाससहस्सेहिं काले विइक्कते अणंतेहिं वण्णपज्जवेहिं जाव परिहाणीए परिहायमाणेपरिहायमाणे एत्थ णं दूसमदूसमा णामं समा काले पडिवज्जिस्सइ, समणाउसो! प. तीसे णं भंते ! समाए उत्तमकट्ठपत्ताए भरहस्स वासस्स केरिसए आयारभावपडोयारे भविस्सइ? गोयमा ! काले भविस्सइ हाहाभूए, भंभाभूए, कोलाहलभूए, समाणुभावेण य खरफरूसधूलिमइला, दुविसहा, वाउला, भयंकरा य वाया संवट्टगा य वाइंति। उस समय तीन वंश १. अर्हत् वंश, २. चक्रवर्ति वंश तथा ३. दशार वंश उत्पन्न (स्थापित) होते हैं तथा उस काल में तेईस तीर्थंकर, ग्यारह चक्रवर्ती, नौ बलदेव और नौ वासुदेव उत्पन्न होते हैं। हे आयुष्मन् श्रमण ! बयालीस हजार वर्ष कम एक कोडाकोडी सागरोपम के प्रमाण वाले दुःषमसुषमा नामक चतुर्थ आरे के पूर्ण होने पर उसी प्रकार अनन्त वर्ण पर्यायों आदि का क्रमशः ह्रास होते-होते अवसर्पिणी काल का दुषमा नामक पाँचवाँ आरा प्रारम्भ होगा। प्र. भंते ! उस काल में भरत क्षेत्र का कैसा आकार स्वरूप कहा गया है? उ. गौतम ! उस समय भरत क्षेत्र का भूमिभाग बहुत समतल और रमणीय होता है। वह मुरज के मंदग के ऊपरी भाग जैसा समतल यावत् विविध प्रकार के पाँच वर्णों तथा कृत्रिम और अकृत्रिम मणियों द्वारा उपशोभित होता है। प्र. भंते ! उस काल में भरत क्षेत्र में मनुष्यों का आकार स्वरूप कैसा कहा गया है? उ. गौतम ! उस समय मनुष्यों के छह प्रकार के संहनन और छह प्रकार के संस्थान होते हैं। उनकी ऊँचाई अनक हाथ (सात हाथ) की होती है। वे जघन्य अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट कुछ अधिक सौ वर्ष का आयु भोगते हैं और भोगकर उनमें से कई नरक गति में जाते हैं यावत् कई सब दुःखों का अंत करते हैं। उस काल के अन्तिम तीसरे भाग में गण धर्म, खण्ड धर्म,राज धर्म, अग्नि धर्म तथा धर्माचरण विच्छिन्न हो जायेंगे। हे आयुष्मन् श्रमण ! इक्कीस हजार वर्ष प्रमाण वाले दुषमा नामक पाँचवें आरे के पूर्ण होने पर अनन्त वर्ण पर्यायों आदि का क्रमशः ह्रास होते-होते अवसर्पिणी काल का दुःषमा-दुषमा नामक छट्ठा आरा प्रारम्भ होगा। प्र. भंते ! जब वह आरा उत्कृष्ट की पराकाष्ठा पर पहुँचेगा तब भरत क्षेत्र का आकार स्वरूप कैसा होगा? उ. गौतम ! उस समय दुःखार्ततावश लोगों में हाहाकार मच जायेगा, गाय आदि पशुओं में दुःखोद्विग्नता से चीत्कार फैल जायेगा, कोलाहल मच जायेगा। तब अत्यन्त कठोर, धूल से मलिन दुस्सह व्याकुल आकुलतापूर्ण भयंकर वायु चलेंगे, संवर्तक तण काष्ठ आदि को उड़ाकर कहीं का कहीं पहुँचा देने वाले वायु विष चलेंगे। उस काल में दिशाएँ प्रतिक्षण धुआँ छोड़ती रहेंगी, वे सर्वथा रज से भरी हुई होंगी, धूल से मलिन होंगी और घोर अंधकार के कारण प्रकाश शन्य हो जायेंगी। काल की रूक्षता के कारण चन्द्र अधिक अहित अपथ्य शीत हिम छोड़ेंगे, सूर्य असह्य रूप में तपेंगे। गौतम ! इस कारण अरसमेघ-मनोज्ञ रस वर्जित जलयुक्त मेघ, विरसमेघ-विपरीत रसमय जलयुक्त मेघ, क्षारमेघ-खार के समान जलयुक्त मेघ, खात्रमेघ-करीष सदृश रसमय जलयुक्त मेघ (अम्ल या खट्टे जलयुक्त मेघ), अग्निमेघ-अग्नि सदृश दाहक जलयुक्त मेघ, विद्युत मेघ-बिजली गिराने वाले मेघ, विषमेघ-विषमय जलवर्षक मेघ, अयापनीयोदकअप्रयोजनीय मेघ, व्याद्धि-कुष्ट आदि और तत्काल प्राण लेने वाली बीमारी उत्पादक जलयुक्त मेघ, अप्रियमेघ-तूफान जनित तीव्र प्रचुर जलधारा छोड़ने वाले मेघ निरंतर वर्षा करेंगे। इह अभिक्खणं-अभिक्खणं धूमाहितिअ दिसा समंता रउस्सला रेणुकलुसतमपडलणिरालोआ समयलुक्खयाए णं अहिअं चंदा सीअंमोच्छिहिंति, अहिअंसूरिआ तविस्संति। अदुत्तरं च णं गोयमा ! अभिक्खणं अरसमेहा, विरसमेहा, खारमेहा, खत्तमेहा, अग्गिमेहा, विज्जुमेहा, विसमेहा, अजवणिज्जोदगा, वाहिरोगवेदणो दारणपरिणामसलिला, अमणुण्णपाणिअगा चंडानिलपहयतिक्खधाराणिवायपउर वासं वासिहिति।

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