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२०१७
परिशिष्ट : ३ गणितानुयोग
कालमासे कालं किच्चा देवलोएसु उववज्जंति, देवलोअपरिग्गहाणं ते मणुआ पण्णत्ता।
प. तीसे णं भंते ! समाए भरहे वासे कइविहा मणुस्सा
अणुसज्जित्था? उ. गोयमा ! छव्विहा पण्णत्ता, तं जहा-१. पम्हगंधा,
२. मिअगंधा, ३. अममा, ४.. तेअतली, ५. सहा, ६.सणिचारी
-जंबू. वक्ख.२, सु. २६-३२
२. तीसे णं समाए चउहिं सागरोवमकोडाकोडीहिं काले वीइक्कते
अणंतेहिं वण्णपज्जवेहि, अणंतेहिं गंधपज्जवेहिं, अणंतेहिं रसपज्जवेहिं, अणंतेहिं फासपज्जवेहि, अणंतेहिं संघयणपज्जवेहि, अणंतेहिं संठाणपज्जवेहि, अणंतेहिं उच्चत्तपज्जवेहि, अणंतेहिं आउपज्जवेहि, अणंतेहिं गुरुलहुपज्जवेहिं, अणंतेहिं अगुरुलहुपज्जवेहिं, अणंतेहिं उट्ठाण कम्मबलवीरिअ-पुरिसक्कार-परक्कमपज्जवे हिं, अणंतगुण परिहाणीए परिहायमाणे-परिहायमाणे एत्थ णं
सुसमा णाम समाकाले पडिवज्जिसु, समणाउसो! प. जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे इमीसे ओसप्पिणीए सुसमाए समाए
उत्तम कट्ठपत्ताए भरहस्स वासस्स केरिसए
आयारभावपडोयारे होत्था? ' उ. गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे होत्था, से जहाणामए
आलिंगपुक्खरेइ वा। तंचेवर्जसुसमसुसमाए पुव्ववण्णिअं।
पालन पोषण कर वे खाँस कर, छींक कर, जम्हाई लेकर शारीरिक कष्ट, व्यथा तथा परिताप का अनुभव नहीं करते हुए काल मास में काल करके देवलोकों में उत्पन्न होते हैं। उन
मनुष्यों का जन्म देवलोक में ही कहा गया है। प्र. भंते ! उस समय भरत क्षेत्र में कितने प्रकार के मनुष्य
होते हैं? उ. गौतम ! छह प्रकार के मनुष्य कहे गये हैं, यथा-१. पद्मगन्ध
कमल के समान गंध वाले, २. मृगगंध-कस्तूरी सदृश गंध वाले, ३. अमम-ममत्वरहित, ४. तेजस्वी-पराक्रमी, ५. सह-सहनशील, ६. शनैश्चारी-उत्सुकता न होने से धीरे-धीरे चलने वाले। हे आयुष्मन् श्रमण ! चार कोडाकोडी सागरोपम के प्रमाण वाले सुषम-सुषमा नामक प्रथम आरे के व्यतीत होने पर अनन्त वर्ण पर्यायों, अनन्त गंध पर्यायों .अनन्त रस पर्यायों. अनन्त स्पर्श पर्यायों, अनन्त संहनन पर्यायों, अनन्त संस्थान पर्यायों, अनन्त उच्चत्व पर्यायों, अनन्त आयु पर्यायों, अनन्त गुरु-लघु पर्यायों, अनन्त अगुरु-लघु पर्यायों, अनन्त उत्थान-कर्म-बल-वीर्य-पुरुषाकार-पराक्रम पर्यायों का अनन्त गुण परिहानि के क्रम से ह्रास होते-होते अवसर्पिणी काल का
सुषमा नामक द्वितीय आरा प्रारम्भ होता है। प्र. भंते ! इस अवसर्पिणी के उत्कृष्टता को प्राप्त सुषमा नामक
आरे में जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र का कैसा आकार स्वरूप कहा
गया है? उ. गौतम ! उसका भूमिभाग बहुत समतल और रमणीय होता है।
णवरं-णाणत्तं चउधणुसहस्समूसिआ एगे अट्ठावीसे पिट्ठकरंडकसए छट्ठभत्तस्स आहारट्ठे चउसटिट्ठ राइंदिआई सारक्खंति,दो पलिओवमाइं आऊ।
सेसंतं चेव। तीसे णं समाए चउव्विहा मणुस्सा अणुसज्जित्था,तं जहा१.एका,२.पउरजंघा,३.कुसुमा, ४. सुसमणा।
मुरज के ऊपरी भाग जैसा इत्यादि जैसा वर्णन सुषम-सुषमा आरे में किया गया है वैसा ही यहाँ जानना चाहिए। उससे इतना अन्तर है-उस काल के मनुष्य चार हजार धनुष की अवगाहना वाले होते हैं, उनकी पसलियों की हड्डियाँ एक सौ अट्ठाईस होती हैं। दो दिन बीतने पर उन्हें भोजन की इच्छा होती है। वे अपने यौगलिक बच्चों की चौंसठ दिन-रात तक सार सम्हाल करते हैं, उनकी आयु दो पल्योपम की होती है। शेष सब कथन पूर्ववत् है। उस समय चार प्रकार के मनुष्य होते हैं१. एक-प्रवर श्रेष्ठ, २. प्रचुरजंघ-पुष्ट जंघा वाले,
३. कुसुम-पुष्प के सदृश सुकुमार, ४. सुशमन-अत्यन्त शान्त। ३. हे आयुष्मन् श्रमण ! तीन कोटाकोटि सागरोपम के प्रमाण वाले
सुषमा नामक द्वितीय आरे के व्यतीत होने पर अनन्त वर्ण पर्यायों यावत् अनन्त उत्थान कर्म-बल-वीर्य पुरुषाकार पराक्रम पर्यायों का अनन्त गुण परिहानि के क्रम से ह्रास होते-होते अवसर्पिणी काल का सुषमदुषमा नामक तृतीय आरा प्रारम्भ होता है। वह आरा तीन भागों में विभक्त है, यथा-१. प्रथम विभाग, २. मध्यम त्रिभाग ३. पश्चिम (अंतिम) त्रिभाग।
३. तीसे णं समाए तिहिं सागरोवमकोडाकोडीहिं काले वीइक्कंते
अणंतेहिं वण्णपज्जवेहिं जाव अणंतेहिं उट्ठाण-कम्मबलवीरिय-पुरिसक्कार-परक्कमपज्जवेहिं अणंतगुण परिहाणीए परिहायमाणे-परिहायमाणे एत्थ णं सुसमदुस्समाणामं समा पडिवज्जिसु, समणाउसो!
सा णं समा तिहा विभज्जइ, तं जहा-१. पढमे तिभाए, २.मज्झिमे तिभाए,३. पच्छिमे तिभाए।
१. मनुष्य मनुष्यनियों के क्षेत्र आदि संबंधी विस्तृत वर्णन एकोरूक द्वीप के वर्णन में देखें, यहाँ विशेष (जीवा. पडि. ३, सु. १११) अंतर पाठ दिया है,
शेष वर्णन उसके समान है।