Book Title: Dravyanuyoga Part 3
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj & Others
Publisher: Agam Anuyog Prakashan

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Page 560
________________ परिशिष्ट ३ गणितानुयोग सुसमसुसमाए समाए उत्तमकट्ठपत्ताए भरहस्स वासस्स केरिसए आयारभाव पडोयारे होत्था ? उ. गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे होत्या, से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव णाणामणिपंचवण्णेहिं तणेहिं य मणीहिंय उवसोभिए, तं जहा - किण्हेहिं जाव सुक्विल्लेहिं । एवं बण्णो, गंधी, रसो, फासो, सो अ तणाण व मणीण य भाणिअव्यो जातत्य बहवे मणुस्सा मणुस्सीओ आसयति, संयति, चिट्ठति, णिसी अंति, तुअट्टंति, हसंति, रमंति, ललंति । तीसे णं समाए भरहे वासे बहवे १. उद्दाला, २, कुद्दाला, ३. मुद्दाला, ४. कयमाला, ५ णट्टमाला, ६. दंतमाला, ७. नागमाला, ८. सिंगमाला, ९. संखमाला, १०. से अमाला । दुगणा पण्णत्ता, कुसविकुसविसुद्धरूक्खमूला, मूलमंतो, कंदमंतो जाव बीअमंतो। पत्तेहिं य पुप्फेहिं य फलेहिं य उच्छण्णपडिच्छण्णा, सिरीए अई अईव उवसोभेमाणा चिट्ठति । 1 तीसे णं समाए भरहे वासे तत्थ तत्थ बहवे भेरूतालवणाई, हेरूतालवणाई मेरूतालवणाई पभयालवणाई, सालवणाई, सरलवणाई, सत्तिवण्णवणाई, पूयफलिवणाई, खज्जूरीवणाई, णालिएरीवणाइं, कुसविकुसविसुद्धरूक्खमूलाई जाव चिट्ठति । 7 तीसे णं समाए भरहे वासे तत्थ तत्थ बहवे सेरिआगुम्मा, गीमालि आगुम्मा, कोटयगुम्मा, बंधुजीवगमा, मणोज्जगुम्मा, बीअगुम्मा, बाणगुम्मा, कणइरगुम्मा, कुज्जवगुम्मा, सिंदुवारगुम्मा, मोगरगुम्मा, जूहिआगुम्मा, मल्लि आगुम्मा, वासतिआगुम्मा, बबुलगुम्मा, कत्युलगुम्मा, सेवालगुग्मा, अगेत्विगुम्मा, मगदति आगुम्मा, चंपकगुम्मा, जाइगुम्मा, णवणीइआगुम्मा, कुंदगुम्मा, महाजाइगुम्मा रम्मा महामेहणिकुरंबभूआ दसद्धवण्णं कुसुमं कुसुमेति । जे णं भरडे वासे बहुसमरमणिज्जं भूमिभागं वायविधु अग्गसाला मुक्कपुष्पपुंजोयधारकलिअं करेति । तीसे णं समाए भरहे वासे तत्थ तत्थ तहिं तहिं बहुईओ पउमलयाओ जाव सामलयाओ णिच्चं कुसुमिआओ जाव लयावण्णओ। तीसे णं समाए भरहे वासे तत्थ-तत्थ तहिं तहिं बहुईओ वणराईओ पण्णत्ताओ। किण्हाओ, किण्णहोभासाओ जाव मनोहराओ, रमत्तगछप्पयको रंग- भिंगारग- कोंडलग जीवजीवग- नंदीमुह-कविल-पिंगलक्खग-कारंडव-चक्कवायगकलहंस-हंस - सारस- अणेगसउणगण मिहुणविअरिआओ सघुणइयमहुरसरणाइआओ, संपिडिज-दरिय भ्रमर-महुवरि २०१५ सुषमसुषमा नामक प्रथम आरे में जब वह अपने उत्कर्ष की पराकाष्ठा में था तब भरत क्षेत्र का आकार स्वरूप किस प्रकार का था ? उ. गौतम ! उसका भूमिभाग बड़ा समतल व रमणीय था। वह मुरज के ऊपरी भाग के समान समतल यावत् अनेक प्रकार की इन पाँच वर्ण की मणियों एवं तृणों से उपशोभित था, यथा-काली यावत् सफेद । इस प्रकार तृणों एवं मणियों के वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श तथा शब्द का वर्णन करना चाहिए यावत् वहाँ बहुत से मनुष्य मनुष्यनियाँ आश्रय लेते, शयन करते, खड़े होते, बैठते, , देह को दायें-बायें घुमाते, मोड़ते, हँसते, रमण करते और मनोरंजन करते हैं। मुद्दाल, उस समय भरत क्षेत्र में १. उद्दाल, २. कुद्दाल, ३ . ४. कृतमाल, ५. नृत्तमाल, ६. दन्तमाल, ७. नागमाल, ८. श्रृंगमाल, ९. शंखमाल तथा १०. श्वेतमाल नामक दस वृक्ष कहे गए हैं। उनकी जड़ें डाभ तथा दूसरे प्रकार के तृणों से विशुद्ध थीं । वे मूल वाले, जड़ वाले यावत् बीज वाले थे। पत्तों, फूलों और फलों से परस्पर आच्छादित होने के कारण अपनी शोभा से अत्यन्त उपशोभित होते हैं। उस समय भरत क्षेत्र में जहाँ-तहाँ बहुत से भेरूताल वृक्षों के वन, हेरूताल वृक्षों के वन, मेरूताल वृक्षों के वन, प्रभताल वृक्षों के वन, साल के वृक्षों के वन, सरल वृक्षों के वन, सप्तपर्ण वृक्षों के वन, सुपारी के वृक्षों के वन, खजूर के वृक्षों के वन, नारियल के वृक्षों के वन थे। उनकी जड़ें डाभ तथा दूसरे प्रकार के तृणों से विशुद्ध यावत् रहित है। उस समय भरत क्षेत्र में जहाँ-तहाँ अनेक सेरिका गुल्म, नवमालिका गुल्म, कोरंटक गुल्म, बन्धुजीवक गुल्म, मनोज्ञ गुल्म, बीज गुल्म, बाम गुल्म, कनेर गुल्म, कुब्जक गुल्म, सिंदुवार गुल्म, मुद्गर गुल्म, यूथिका गुल्म, मल्लिका गुल्म, वासंतिका गुल्म, वस्तु गुल्म, कस्तुल गुल्म, शैवाल गुल्म, अगस्ति गुल्म, मगदतिका गुल्म, चंपक गुल्म, जाती गुल्म, नवनीतिका गुल्म, कुन्द गुल्म, महाजाती गुल्म थे। वे गुल्म रमणीय बादलों की घटाओं जैसे गहरे पंचरंगे फूलों से युक्त थे। वे वायु से प्रकंपित अपनी शाखाओं के अग्र भाग से गिरे हुए फूलों से वे भरत क्षेत्र के अति समतल, रमणीय भूमिभाग को सुरभित बना देते थे। उस समय भरत क्षेत्र में जहाँ-तहाँ अनेक पद्मलताएँ यावत् शयामलताएँ होती हैं। वे लताएँ सब ऋतुओं में फूलती थीं यावत् कलंगियों धारण किये रहती थीं। उस समय भरत क्षेत्र में जहाँ-तहाँ बहुत-सी वनराजियाँ (वनपक्तियाँ थीं। ये कृष्ण कृष्णावभासयुक्त यावत् मनोहर थीं । पुष्प पराग के सौरभ से मत्त, भ्रमर, कोरक, भृंगारक, कुंडल, चकोर, नन्दीमुख, कपिल, पिंगलाक्षक, करंडक, चक्रवाक, बतक, हंस, सारस आदि अनेक पक्षियों के जोड़े उनमें विचरण करते थे। वे वनराजियाँ पक्षियों के मधुर शब्दों

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