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१९९२
६. जे मंडवा ते सत्तविहा पण्णत्ता,तं जहा
१. ते मंडवा, २.ते आरिट्ठा, ३.ते समुया,
४. ते तेला, ५.ते एलावच्चा, ६.ते कंडिल्ला, . ७.ते खारायणा। ७. जे वासिट्ठा ते सत्तविहा पण्णत्ता,तं जहा
१.ते वासिट्ठा, २.ते उंजायणा, ३. ते जारूकण्हा, ४.ते वग्यावच्चा, ५.ते कौडिन्ना, ६.ते सन्नी, ७.ते पारासरा।
-ठाणं अ.७, सु.५५१ भाग २, खण्ड ६, पृ. १७२ मिउमद्दव सम्पन्ने गग्गाचार्यसूत्र ३५९ (ग)
थेरे गणहरे गग्गे, मुणी आसि विसारए। आइण्णे गणिभावम्मि समाहिं पडिसंधए॥' -उत्त. अ. २७, गा.१
द्रव्यानुयोग-(३) ६. जो माण्डव गोत्री हैं, वे सात प्रकार के कहे गए हैं, यथा
१. माण्डव, २. अरिष्ट, ३. सम्मुक्त, ४. तैल, ५. ऐलापत्य, ६. काण्डिल्य,
७. क्षारायण। ७. जो वाशिष्ठ गोत्री हैं, वे सात प्रकार के कहे गए हैं, यथा
१. वाशिष्ठ, २. उंजायन, ३. जारूकृष्ण, ४. व्याघ्रापत्य,, ५. कौण्डिन्य, ६.संज्ञी, ७. पाराशर, (कुल ४९ गोत्र होते हैं)।
मृदु-मार्दव सम्पन्न गर्गाचार्य
मिउ-मद्दवसंपन्ने, गम्भीरे सुसमाहिए। विहरइ महिं महप्पा सीलभूएण अप्पणा॥ -उत्त. अ.२७, गा.१७
१. गर्गगोत्रोत्पन्न गार्ग्य मुनि स्थविर, गणधर और (सर्वशास्त्र) विशारद थे, वे (आचार्य के) गुणों से व्याप्त थे और गणि भाव में स्थित थे तथा समाधि में (स्वयं को) जोड़ने वाले थे। (उसके पश्चात्) मृदु और मार्दव से सम्पन्न, गम्भीर, सुसमाहित एवं शीलभूत (चारित्रमय) आत्मा से युक्त होकर वे महात्मा गाग्र्याचार्य (अविनीत शिष्यों को छोड़कर) पृथ्वी पर (एकाकी) विचरण करने लगे।
१. विनीत-अविनीत शिष्यों का वर्णन चरणान् योग में है।