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तए णं से समणे भगवं गोयमे इमीसे कहाए लद्धट्टे समाणे जायसढे जाय समुप्यन्त्रको उहल्ले, अहापज्जतं समुदाणं गण्ड गण्डिता रायगिहाओ नगराओ पडिनिक्खमद, पडिनिक्खमित्ता अतुरिच जाब सोहेमागे जेनेव गुणसिीलए चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छिता समणे भगवं महावीरस्स अदूरसामंते गमणागमणाए पडिक्कमइ, एसणमणेसणं आलोएइ आलोइत्ता भत्तपाणं पडिदंसेइ पडिदंसेत्ता समणं भगवं महावीरं जाव एवं वयासी
"एवं खलु ते आहे तुब्धेहि अन्याए समाणे रायगिहे नगरे उच्च-नीय-मज्झिमाणि कुलाणि घरसमुदाणास भिक्खायरियाए अडमाणे बहुजणसद्द निसामेमि एवं खलु देवाणुपिया ! तुंगियाए नगरीए बहिया पुप्फवईए चेइए पासावचिजा घेरा भगवंतो समणोवासएहिं इमाई एयासवाई यागरणाई पुच्छेजा संजमेण भंते किफले ? तये किं फले ?' तं चेव जाव सच्चे णं एसमट्ठे णो चेव णं आयभाववत्तव्वयाए।"
"तं पभू णं भंते! ते थेरा भगवंतो तेसिं समणोवासयाणं इमाई एयारूवाइं वागरणाई वागरित्तए ? उदाहु अप्पभू ?
समिया णं भते ते खेरा भगवतो तोसि समणोवासयाणं इमाई एयारूवाई वागरणाई वागरितए ? उदाहु असमिया ? आउज्जिया णं भंते ! ते थेरा भगवंतो तेसिं समणोवासयाणं ईमाई एवारूबाई बागरणाई वागरित्तए ? उदाहु अगाउज्जिया ? पलिउज्जिया णं भंते! ते थेरा भगवंतो तेसिं समणोवासयाणं इमाई एयासवाई वागरणाई बागरितए? उदाहु अपलिउज्जिया ?
पुव्यतयेणं अजो ! देवा देवलोएस उववज्जति, पुव्यसंजमेणं देवा देवलोएसु उववज्जति कम्मियाए, अज्जो देवा देवलोएसु उववज्जति संगियाए अज्जो देवा देवलोएसु उववज्जति पुव्वतवेणं पुव्वसंजमेणं कम्मियाए संगियाए अज्जो ! देवा देवलोएसु उववज्जति सच्चे णं एसमड़े णो चेव आयभाववत्तव्वयाए ?"
भूणं गोयमा ! तेथेरा भगवंतो तेसिं समणोवासयाणं इमाई एयारूबाई वागरणाई वागरेत्तए, गो चैव णं अष्पभू, तह बेव
द्रव्यानुयोग - (३)
इसके पश्चात् श्रमण भगवान गौतम ने इस प्रकार की बात लोगों के मुख से सुनी तो उन्हें श्रद्धा उत्पन्न हुई यावत् उनके मन में कौतूहल भी जागा और विधिपूर्वक आवश्यकतानुसार भिक्षा ली. भिक्षा लेकर वे राजगृहनगर की सीमा) से बाहर निकले बाहर निकलकर अत्वरित गति से या (ईर्यासमितिपूर्वक) ईर्ष्या-मार्ग शोधन करते हुए जहाँ गुणशीलक चैथा और जहाँ श्रमण भगवान महावीर विराजमान थे, वहाँ आए और आकर उनके निकट उपस्थित होकर गमनागमन सम्बन्धी प्रतिक्रमण किया (भिक्षाचर्या में लगे हुए) एषणा और अनेषणा दोषों की आलोचना की, आलोचना करके फिर ( लाया हुआ) आहार- पानी भगवान को दिखाया, दिखाकर श्रमण भगवान महावीर स्वामी से यावत् इस प्रकार निवेदन किया
"भंते ! मैं आपसे आज्ञा प्राप्त करके राजगृहनगर में उच्च, नीच और मध्यम कुलों में भिक्षाचर्या के लिए विधिपूर्वक भिक्षाटन कर रहा था, उस समय बहुत से लोगों के मुख से इस प्रकार के उद्गार सुने कि 'हे देवानुप्रियो !' तुंगिका नगरी के बाहर स्थित पुष्पवतिक नामक उद्यान में पाश्र्वापत्यीय स्थविर भगवन्त पधारे थे उनसे वहाँ के श्रमणोपासकों ने इस प्रकार के प्रश्न पूछे भंते! संयम का क्या फल है ? और तप का क्या फल है ?' यह सारा वर्णन पूर्व की तरह कहना चाहिए यावत् यह बात सत्य है, इसलिए कही है. किन्तु हमने (आत्मभाव) अहंभाव के वश होकर नहीं कही है।"
( यों कहकर श्री गौतम स्वामी ने पूछा- ) "भंते ! क्या वे स्थविर भगवन्त उन श्रमणे पासकों को इन और इस प्रकार के उत्तर देने में समर्थ हैं या असमर्थ हैं ?
भंते! क्या वे स्थविर भगवंत उन श्रमणोपासकों के प्रश्नों के इस प्रकार उत्तर देने में सम्यकरूप से सक्षम हैं या असक्षम हैं ? भंते ! क्या वे स्थविर भगवन्त उन श्रमणोपासकों को ऐसा उत्तर देने में उपयुक्त हैं या अनुपयुक्त हैं ?
भंते! क्या वे स्थविर भगवन्त उन श्रमणोपासकों को ऐसा उत्तर देने में विशिष्ट योग्यता वाले हैं या योग्यता वाले नहीं हैं ?
आर्यों! पूर्वतप से देवता देवलोकों में उत्पन्न होते हैं. पूर्वसंयम से देवता देवलोकों में उत्पन्न होते हैं, कर्मिता से देवता देवलोकों में उत्पन्न होते हैं. संगिता (आसक्ति) के कारण देवता देवलोकों में उत्पन्न होते हैं और पूर्वतप पूर्वसंयम कर्मिता और संगिता से देवता देवलोकों में उत्पन्न होते हैं। यह बात सत्य है, इसलिए हम कहते हैं, किन्तु अपने अहंभाववश नहीं कहते हैं ?"
( महावीर ने उत्तर दिया-) हे गौतम! वे स्थविर भगवन्त उन श्रमणोपासकों को इस प्रकार के उत्तर देने में समर्थ हैं, किन्तु असमर्थ नहीं है शेष सब वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए