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परिशिष्ट : ३ गणितानुयोग
— २००३ ) चन्द्र अभिजित्नक्षत्र से और सूर्य पुष्यनक्षत्र से युक्त रहते हैं।
रूचकवर और कुण्डलवर पर्वतों के उद्वेध आदि का प्ररूपण
चंदा अभीइजुत्ता सूरा पुण होंति पुस्सेहिं। ॥३२॥
-जीवा. पडि.३, सु. १७७ पृ.४१४ रूयगवर-कुंडलवरपव्वयाणं उव्वेहाइ परूवणंसूत्र ८४७ (ख)
रूयगवरेणं पव्वए दस जोयणसयाई उव्वेहेणं, मूले दस जोयणसहस्साई विक्खंभेणं, उवरिं दस जोयणसयाई विक्खंभेणं पण्णत्ते। एवं कुंडलवरे वि।
-ठाणं. अ.१०,सु.७२५ पृ.४१६ बहुमच्छकच्छभाइण्णं समुद्दाणणामाणिसूत्र ८९४ (ख)
प. कइणं भंते ! समुद्दा बहुमच्छकच्छभाइण्णा पण्णत्ता ?
रुचकवर पर्वत की गहराई एक हजार योजन की है। मूल भाग में उसकी चौड़ाई दस हजार योजन की है। ऊपर के भाग की चौड़ाई एक हजार योजन की कही गई है। कुण्डलवर पर्वत का कथन रूचकवर पर्वत के समान जानना चाहिए।
मच्छ-कच्छभ आदि बहुल समुद्रों के नाम
उ. गोयमा ! तओ समुद्दा बहुमच्छकच्छभाइण्णा पण्णता,
तं जहा१.लवणे, २.कालोए, ३. सयंभूरमणेरे। अवसेसा समुद्दा अप्पमच्छकच्छभाइण्णा पण्णत्ता समणाउसो!
-जीवा. पडि.३,सु.१८७ पृ.४१९ दीवंत सागरंताणं फुसणा परूवणंसूत्र ९०४ (ख)
प. दीवंते भंते ! सागरंतं फुसइ ? सागरते वि दीवंतं फुसइ ?
प्र. भंते ! कौन से समुद्र बहुत मत्स्य-कच्छपों से व्याप्त कहे
गए हैं? उ. गौतम ! तीन समुद्र बहुत मत्स्य-कच्छपों से व्याप्त कहे गए हैं,
यथा१. लवण, २. कालोद, ३. स्वयंभूरमण समुद्र। हे आयुष्मन् श्रमण ! शेष सब समुद्र अल्प मत्स्य-कच्छपों वाले कहे गए हैं।
द्वीप सागरांत की स्पर्शना का परूपण
उ. हता, गोयमा ! दीवंते सागरंतं फुसइ, सागरते वि दिवंतं फुसइ
जाब नियमा छद्दिसिं फुसइ।
प्र. भंते ! क्या द्वीप का अन्त (किनारा) समुद्र के अन्त को स्पर्श
करता है और समुद्र का अन्त क्या द्वीप के अन्त को स्पर्श
करता है? उ. हाँ, गौतम ! द्वीप का अन्त समुद्र के अंत को और समुद्र का
अन्त द्वीप के अन्त को यावत् नियम से छहों दिशाओं को स्पर्श करता है। इसी प्रकार इसी अभिलाप से पानी का किनारा पोत (नोका) के किनारे को और पोत का किनारा पानी के किनारे को, छेद का किनारा वस्त्र के किनारे को और वस्त्र का किनारा छेद के किनारे को, छाया का अन्त आतप (धूप) के अन्त को और
आतप का अन्त छाया के अन्त को यावत् नियमपूर्वक छहों दिशाओं को स्पर्श करता है।
एवं एएणं अभिलावेणं उदयंते, पोदंते, दूसंतं, छायंते, आतवंतं जाव नियमा छद्दिसिं फुसइ।
-विया. स. १, उ. ६, सु. ५-६
ज्योतिष्क निरूपण
ज्योतिष्क देवों की वर्णक द्वार गाथाएँ
पृ. ४२८ जोइसिय देवाणं वण्णगदार गाहाओसूत्र ९२५ (ख)
१. हिटिंट,
१. अधस्तन-निचले, मध्य और ऊपरी क्षेत्र में स्थित तारा
विमानों के देव,
१. सूरिय.पा.१९.सु.१०० २. ठाणं अ.३,सु.१५७