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२००६
द्रव्यानुयोग-(३)
सेसंतं चेव जाव सूरा देवा।
-जीवा. पडि.३.सु. १६२
शेष वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। वहाँ सूर्य नामक महर्धिक देव रहते हैं पर्यन्त जानना
चाहिए। नक्षत्रों की वर्णक द्वार गाथा
पृ.५९७ णक्खत्ताणं वण्णगदार गाहासूत्र ८८(क)
१. जोगो,
२. देव य, ३. तारग्ग, ४. गोत्त, ५. संठाण, ६. चंद-रवि-जोगा। ७. कुल,
१. योग-अट्ठाईस नक्षत्रों में कौन सा नक्षत्र चन्द्रमा के साथ
दक्षिणयोगी है, कौन सा नक्षत्र उत्तरयोगी है इत्यादि दिशायोग, २. देवता-नक्षत्रों का देवता, ३. ताराग्र-नक्षत्रों का तारा परिमाण, ४. गोत्र-नक्षत्रों के गोत्र, ५. संस्थान-नक्षत्रों के आकार, ६. चन्द्र-रवि-योग-नक्षत्रों का चन्द्रमा और सूर्य के साथ योग, ७. कुल-कुलसंज्ञक, उपकुलसंज्ञक तथा कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्रों
के नाम, ८. पूर्णिमा-अमावस्या-पूर्णिमाओं और अमावस्याओं की संख्या, ९. सन्निपात-पूर्णिमाओं तथा अमावस्याओं की अपेक्षा से नक्षत्रों
का संबंध, १०. नेता-मास समापक नक्षत्रों के नाम इन सबका यहाँ
वर्णन है।
८. पुण्णिम अवमंसाय, ९. सण्णिवाए,
तारा रूपों के चलित होने के हेतु
१०. अणेता य॥१॥
-जंबू. वक्ख.७, सु. १८८ पृ. ६५४ तारारूवाणं चलण हेऊसूत्र १२८ (ख)
तिहिं ठाणेहिं तारारूवे चलेज्जा, तं जहा१. विकुव्वमाणे वा, २. परियारेमाणे वा, ३. ठाणाओ वा ठाणं संकममाणे-तारारूवे चलेज्जा।
-ठाणं.अ.३, उ.१.सु.१४१ ऊर्ध्वलोक
तीन कारणों से तारे चलित होते हैं, यथा१. वैक्रिय रूप करते हुए, २. परिचारणा करते हुए, ३. एक स्थान से दूसरे स्थान में संक्रमण करते हुए तारे चलित
होते हैं।
ऊर्ध्वलोक क्षेत्रानुपूर्वी का परूपण
पृ.६५७ उड्ढलोय खेत्ताणुपुव्विस्स परूवणंसूत्र ५ (ख)
उड्ढलोगखेत्ताणुपुब्बी तिविहा पण्णता,तं जहा१. पुव्वाणुपुब्बी, २. पच्छाणुपुब्बी, ३. अणाणुपुची। प. से किं तं पुव्वाणुपुव्वी? उ. पुव्वाणुपुव्वी-१. सोहम्मे, २. ईसाणे, ३. सणंकुमारे,
४. माहिंदे, ५. बंभलोए, ६. लंतए, ७. महासुक्के, ८. सहस्सारे, ९. आणए, १०. पाणए, ११. आरणे, १२. अच्चुए, १३.गेवेज्जविमाणा,१४.अणुत्तरविमाणा,१५. ईसिपब्भारा।
ऊर्ध्वलोक क्षेत्रानुपूर्वी तीन प्रकार की कही गई है, यथा१.पूर्वानुपूर्वी, २. पश्चानुपूर्वी, ३. अनानुपूर्वी। प्र. ऊर्ध्वलोक क्षेत्रपूर्वानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? उ. ऊर्ध्वलोक क्षेत्र पूर्वानुपूर्वी का स्वरूप इस प्रकार है
१. सौधर्म, २. ईशान, ३. सनत्कुमार, ४. माहेन्द्र, ५. ब्रह्मलोक, ६. लान्तक, ७. महाशुक्र, ८. सहसार, ९. आनत, १०. प्राणत, ११. आरण, १२. अच्युत, १३. ग्रैवेयकविमान, १४. अनुत्तरविमान, १५. ईषत्प्राग्भारापृथ्वी। इस क्रम से ऊर्ध्वलोक के क्षेत्रों का कथन करने को ऊर्ध्वलोक क्षेत्र पूर्वानुपूर्वी कहते हैं।
से तं पुव्वाणुपुव्वी।