________________
२००४
२. ससि-परिवारो, ३. मन्दर बाहा तहेव, ४. लोगते, ५. धरणितलाओ अबाधा, ६. अंतो बाहिं च उद्धमुहे, ७. संठाणं च. ८. पमाणं, ९. वहंति, १०. सीहगई, ११. इद्धिमन्ता य, १२. तारंतर १३. अग्गमहिसी तुडिअ, १४. पहु. १५. ठिईअ, १६. अप्पबहू।
-जंबू. वक्ख.७,सु.१९६ पृ.४३१ जोइसिय विमाणाणं संखाइ परूवणंसूत्र ९२८ (ख)
प. केवइया णं भंते ! जोइसियविमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता ? उ. गोयमा !असंखेज्जा जोइसियविमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता।
द्रव्यानुयोग-(३) २. चन्द्र परिवार, ३. मेरू से ज्योतिश्चक्र के अन्तर, ४. लोकान्त से ज्योतिश्चक्र के अन्तर, ५. भूतल से ज्योतिश्चक्र के अन्तर, ६. नक्षत्रों के अन्दर बाहर ऊर्ध्वमुखादि चलने, ७. ज्योतिष्क देवों के विमानों के संस्थान, ८. ज्योतिष्क देवों की संख्या, ९. चन्द्र आदि के वाहक देवों की संख्या, १०. ज्योतिष्क देवों की शीघ्र मंद गति, ११. देवों की ऋद्धि, १२. ताराओं का पारस्परिक अन्तर, १३. ज्योतिष्क देवों की अग्रमहिषियाँ, १४. देवियों के साथ भोग भोगने का सामर्थ्य, १५. ज्योतिष्क देवों की स्थिति, १६. ज्योतिष्क देवों का अल्पबहुत्व।
ज्योतिष्क विमानों की संख्यादि का प्ररूपण
प्र. भंते ! ज्योतिष्क देवों के विमानावास कितने लाख कहे गए हैं ? उ. गौतम ! ज्योतिष्क देवों के विमानावास असंख्यात लाख कहे
गए हैं। प्र. भंते ! वे विमानावास किस वस्तु से निर्मित हैं ? उ. गौतम ! वे विमानावास सर्वस्फटिकरलमय हैं और स्वच्छ हैं,
शेष सब वर्णन पूर्ववत् समझना चाहिए।
प. ते णं भंते ! किं मया पण्णत्ता ? उ. गोयमा ! सव्वफालिहामया अच्छा, सेसं तं चेव।
-विया.स.१९, उ.७.सु.६-७ पृ.४३४ लवणसमुद्दे नक्खत्ताणं गहाण य संखा परूवर्णसूत्र ९३२ (ख)
लवणे णं समुद्दे चत्तारि कत्तियाओ जाव चत्तारि भरणीओ।
लवण समुद्र में नक्षत्रों और ग्रहों को संख्या का प्ररूपण
चत्तारि अग्गी जाव चत्तारि जमा। चत्तारि अंगारा जाव चत्तारि भावकेऊ।
-ठाणं अ.४, उ.२, सु.३०३
लवण समुद्र में कृत्तिका से भरणी पर्यन्त चार-चार नक्षत्रों ने, चन्द्रमा के साथ योग किया था, करते हैं और करेंगे। इन नक्षत्रों के अग्नि यावत् यम ये चार-चार देव हैं। अंगार से भावकेतु पर्यन्त के सभी ग्रहों ने चार किया था, करते हैं और करेंगे।
पृ.४३९
समय क्षेत्र में ज्योतिष्कों के प्ररूपण का उपसंहार
समयखेत्तेजोइसियाणं परवणस्स उवसंहारोसूत्र ९३८ (ख)
एसो तारापिंडो सव्वसमासेणं मणुयलोगम्मि। बहिया पुण ताराओ जिणेहिं भणिया असंखेज्जा ॥१॥
इस प्रकार मनुष्यलोक में तारापिण्ड पूर्वोक्त संख्याप्रमाण हैं। मनुष्यलोक के बाहर तारापिण्डों का प्रमाण जिनेश्वर देवों ने असंख्यात कहा है। मनुष्यलोक में जो पूर्वोक्त तारागणों का प्रमाम कहा गया है वे गति स्थान वाले होने से गतिशील हैं और कदम्ब के फूल के आकार के समान हैं।
एवइयं तारग्गं जं भणियं माणुसम्मि लोगम्मि। चार कलुबयापुष्फसंठिय जोइस चरई ॥२॥
-जीवा. पडि. ३, सु. १७७ १. सूरिय.पा. १९,सु.१००