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परिशिष्ट ३ धर्मकथानुयोग)
भाणू य इइ के वृत्ते ? केसी गोयममब्बवी । सिमेवं बुवंतं तु गोयमो इणमब्ववी ॥७७॥ उग्गओ खीणसंसारो, सजिभक्खरो मो करिम्सइ उज्जोयं सव्वलोयंमि पाणिणं ॥ ७८ ॥
साहू गोय! पाते, छिन्नो मे संसओ इमो
अन्नो वि संसओ मज्झं तं मे कहसु गोयमा ! ॥ ७९ ॥
१२. सारीर - माणसे दुक्खे, वज्झमाणाण पाणिणं । खेमं सिवमणावाहं ठाणं, किं मन्नसी मुणी ॥८०॥
अत्थि एगं धुवं ठाणं, लोगग्गंमि दुरारुहं ॥ जत्थ नत्थि जरा मच्चू, वाहिणो वेयणा तहा ॥ ८१ ॥
ठाणे व इइ के वृत्ते ? केसी गोयममव्ववी । सिमेवं पुर्व तु गोयमो इणामयवी ॥८२॥ निव्वाणं ति अवाहं ति, सिद्धी लोगग्गमेव य खेमं सिवं अणावाहं, जं चरन्ति महेसिणो ॥ ८३ ॥
नाणं सामय चास लोगग्गमि दुरारुहं । जं संपत्ता न सोयन्ति भवोहन्तकरा मुणी ॥८४॥
साहु गोयम ! पन्ना ते छिन्नो मे संसओ इमो ।
नमो ते गंवाईय ! सव्यसुतमहोयही ॥८५॥
एवं तुम खिन्ने केसी घोरपरक्रमे। अभिवन्दित्ता सिरसा गोयमं तु महायसं ॥ ८६ ॥ पंचमहव्वयधम्मं पडिवज्जइ भावओ। पुरिमम्स पच्छिममी, मग्गे तत्थ सुहावहे ॥ ८७ ॥
केसीगोयमओ निच्चं तम्मि आसि समागमे । मुय - सीलसमुक्करिसो महत्थऽ त्थविणिच्छओ ॥८८॥
तोसिया परिसा सव्वा सम्मग्गं समुवट्ठिया ।
सध्या ते पतीयन्तु भयवं केसिगोयमे ॥८९॥
त्ति बेमि - उत्त. अ. २३, गा. १-८९
भाग २. खण्ड ४, पृ. १२८ पासाववच्चज्ज थेराण देखणाए तब संजम फल परूवणं भगवया अणुमयणाय
सूत्र ६४ (ख)
तए णं ते समणोवासया थेराणं भगवंताणं अंतिए धम्मं सोच्चा निसम्म जाव हर्यायया वित्तो आवाहिणं पंचाहिण करेति
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केसी ने गौतम से पूछा- आप सूर्य किसे कहते हैं ?" केशी के इस प्रकार पूछने पर गौतम ने यह कहा- ॥७७॥
( गणधर गौतम - ) जिसका संसार क्षीण हो चुका है, सर्वज्ञ है, ऐसा जिन - भास्कर उदित हो चुका है। वही सारे लोक में प्राणियों के लिए प्रकाश करेगा ॥ ७८ ॥
(केशी कुमारभ्रमण) गौतम ! तुम्हारी प्रज्ञा निर्मल है। तुमने मेरा यह संशय तो दूर कर दिया। अब मेरा एक संशय रह जाता है, उसके विषय में भी मुझे कहिए ॥ ७९ ॥
१२. मुनिवर ! शारीरिक और मानसिक दुःखों से पीड़ित प्राणियों के लिए क्षेम शिव और अनाबाध-बाधारहित स्थान कौन-सा मानते हो ? ॥ ८० ॥
( गणधर गौतम - ) लोक के अग्रभाग में एक ऐसा ध्रुव (अचल ) स्थान है, जहाँ जरा, मृत्यु, व्याधियाँ तथा वेदनाएँ नहीं हैं, परन्तु वहाँ पहुँचना दुरारुह (बहुत कठिन) है ॥ ८१ ॥
(केशी कुमारश्रमण-) "वह स्थान कौन-सा कहा गया है ? केशी ने गौतम से पूछा और पूछने पर गौतम ने यह कहा - ॥८२॥
( गणधर गौतम) जिस स्थान को महामुनि जन ही प्राप्त करते हैं, वह स्थान निर्वाण, अबाध, सिद्धि, लोकाग्र, क्षेम, शिव और अनाबाध (इत्यादि नामों से प्रसिद्ध ) है ॥ ८३ ॥
भवप्रवाह का अन्त करने वाले महामुनि जिसे प्राप्त कर शोक से मुक्त हो जाते हैं, वह स्थान लोक के अग्रभाग में शाश्वतरूप से स्थित है, जहाँ पहुँचना अत्यन्त कठिन है। उसे मैं स्थान कहता हूँ ॥ ८४ ॥ (कशी कुमारश्रमण) हे गौतम! आपकी प्रज्ञा श्रेष्ठ है। आपने मेरा यह संशय भी दूर कर दिया है, संशयातीत है सर्वश्रुत महोदधि ! आपको मेरा नमस्कार है ॥ ८५ ॥
इस प्रकार संशय निवारण हो जाने पर घोर पराक्रमी केशी कुमारश्रमण ने महायशस्वी गौतम को नतमस्तक हो वन्दना करके ॥ ८६ ॥ पूर्व जिनेश्वर द्वारा अभिमत सुखावह अन्तिम तीर्थंकर द्वारा प्रवर्तित मार्ग में पंच महाव्रतरूप धर्म को भाव से अंगीकार किया ॥८७॥
उस तिन्दुक उद्यान में केशी और गौतम दोनों का जो समागम हुआ, उससे श्रुत तथा शील का उत्कर्ष हुआ और महान् प्रयोजन भूत अर्थों का विनिश्चय हुआ ॥८८॥
(इस प्रकार ) यह सारी सभा (देव, असुर और मनुष्यों से परिपूर्ण परिषद्) धर्मचर्चा से सन्तुष्ट हुई और सन्मार्ग में समुपस्थित हुई। उस सभा ने भगवान केशी और गौतम की स्तुति की कि वे दोनों ( हम पर) प्रसन्न रहें।
ऐसा मैं कहता हूँ! || ८९ ॥
पाश्र्वापत्य स्थविरों द्वारा देशना में तप संयम के फल का प्ररूपण और भगवान द्वारा अनुमोदना
तदन्तर वे श्रमणोपासक स्थविर भगवन्तों से धर्मोपदेश सुनकर एवं हृदयंगम करके बड़े हर्षित और सन्तुष्ट हुए यावत् उनका हृदय खिल