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परिशिष्ट ३ धर्मकथानुयोग) गोयमे पडिव सीससंघ समाउले । कुलमवेक्खन्तोतिन्दुयं वणमागओ ॥ १५ ॥
केसी कुमार समणे गोयमं दिसमागये। पडिवं पडिवत्तिं सम्मं संपडिवज्जई ॥ १६ ॥ पलालं फासूयं तत्थ पंचमं कुसतणाणि य। गोयमस्स निसेज्जाए खिप्पं संपणामए ॥१७॥ केसी कुमार समणे गोयमे व महापसे उभओ निसण्णा सोहन्ति चन्द सूर समेप्पेभा ॥१८॥
'समागया बहू तेत्थ पासण्डा कोउगो सिगा । गिहत्थाणं अणेगाओ, साहस्सीओ समागया ॥ १९ ॥
देव-दाणव- गन्धव्वा जक्ख- रक्खस-किन्नरा । अदिस्साणं च भूयाणं आसि तत्थ समागमो ॥२०॥ पुच्छामि ते महाभाग ! केसी गोयममब्बवी तओ केसिं बुवतं तु गोयमो इणमब्ववी ॥२१॥
पुच्छ भन्ते ! जहिच्छ ते केसि गोयममब्बयी। तओ केसी अणुन्नाए गोयमं इणमब्बवी ॥२२॥
१. चाउज्जामो व जो धम्मो, जो इमो पंचसिक्खिओ
देसिओ वद्धमाणेण पासेण य महामुनी ॥ २३ ॥
एगकज्जपवन्त्राणं विसेसे किं नु कारणं ? धम्मे दुविहे मेहावि ! कहं विप्पच्चओ न ते ॥ २४ ॥
तओ केसिं बुवंतं तु गोयमो इनमब्बदी। पन्ना समिक्खए धम्मं तत्तं तत्तविणिच्छयं ॥ २५ ॥
पुरिमा उज्जुजडा उ वंकजडा य पच्छिमा । मज्झिमा उज्जुपन्ना य तेण धम्मे दुहा कए ॥ २६ ॥
पुरिमाणं दुव्विसोज्झो उ, चरिमाणं दुरणुपालओ । कप्पो मज्झिमगाणं तु सुविसोझो सुपालओ ॥२७॥
साहु गोयम ! पन्ना ते छिन्नो मे संसओ इमो । अन्न वि संसओ मज्झं तं मे कहसु गोयमा ! ॥ २८ ॥
१. अचेलगो य जो धम्मो जो इमो सन्तरूत्तरो । देसिओ वद्धमाणेण पासेण य महाजसा ॥ २९ ॥
एगकज्जपवन्नाणं विसेसे किं नु कारणं ?. लिंगे दुविहे मेहावि ! कहं विप्पच्चओ न ते ? ॥ ३० ॥
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यथोचित विनयमर्यादा के ज्ञाता गौतम ने केशी श्रमण के कुल को ज्येष्ठ जानकर अपने शिष्य संघ के साथ तिन्दुक वन (उद्यान) में आए ॥१५ ॥
गौतम को आते हुए देखकर केशीकुमार श्रमण ने सम्यक् प्रकार से उनके अनुरूप आदर सत्कार किया ॥ १६ ॥
गौतम को बैठने के लिए उन्होंने तत्काल प्रासुक पवाल ( पराल - घास) तथा पाँचवाँ कुश तृण समर्पित किया ॥१७॥
कुमारभ्रमण केशी और महायशस्वी गौतम दोनों (वहाँ) बैठे हुए चन्द्र और सूर्य के समान सुशोभित हो रहे थे ॥१.८॥
वहाँ कौतूहल की दृष्टि से अनेक अबोधजन अन्य धर्म सम्प्रदायों के बहुत से पाषण्ड परिव्राजक आए और अनेक सहस्त्र गृहस्थ भी आ पहुँचे ॥ १९ ॥
देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, किन्नर और अदृश्य भूतों का वहाँ अद्भुत समागम हो गया ॥ २० ॥
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केशी ने गौतम से कहा "हे महाभाग ! मैं आपसे (कुछ) पूछना चाहता हूँ।” केशी के ऐसा कहने पर गौतम ने इस प्रकार कहा- ॥२१॥
"भंते ! जैसी भी इच्छा हो पूछिए", अनुज्ञा पाकर तब केशी ने गौतम से इस प्रकार कहा- ॥२२॥
१. "जो यह चातुर्याम धर्म है, जिसका प्रतिपादन महामुनि पार्श्वनाथ ने किया है और यह जो पंचशिक्षात्मक धर्म है जिसका प्रतिपादन महामुनि वर्धमान ने किया है।" ॥२३॥
"हे मेधाविन् ! दोनों जब एक ही उद्देश्य को लेकर प्रवृत्त हुए हैं, तब इस विभेद (अन्तर ) का क्या कारण है ? इन दो प्रकार के धर्मों को देखकर तुम्हें विप्रत्यय (सन्देह) क्यों नहीं होता ?" ॥२४॥
केशी के इस प्रकार कहने पर गौतम ने यह कहा - "तत्वों (जीवादि तत्वों) का जिसमें विशेष निश्चय होता है, ऐसे धर्मतत्व की समीक्षा प्रज्ञा द्वारा होती है।" ॥२५॥
प्रथम तीर्थंकर के साधु ऋजु (सरल) और जड़ (मन्दमति) होते हैं, अन्तिम तीर्थंकर के साधु वक्र और जड़ होते हैं, (जबकि ) बीच के २२ तीर्थंकरों के साधु ऋजु और प्राज्ञ होते हैं इसलिए धर्म के दो प्रकार कहे गए हैं ॥ २६ ॥
“प्रथम तीर्थंकर के साधुओं का आचार दुविशोध्य ( अत्यन्त कठिनता से निर्मल किया जाता था, अन्तिम तीर्थंकर के साधुओं के आचार का पालन करना कठिन है, किन्तु बीच के २२ तीर्थंकरों के साधकों के आचार का पालन सुकर (सरल) है।" ॥२७॥ (कुमारभ्रमण केशी) हे गौतम! आपकी प्रज्ञा श्रेष्ठ है। आपने मेरा यह संशय मिटा दिया, किन्तु गौतम ! मुझे एक और सन्देह है उस विषय का भी समाधान कीजिए ॥ २८ ॥
२. " यह जो अचेलक धर्म है वह वर्धमान ने बताया है और यह जो सान्तरोत्तर (जो वर्णादि से विशिष्ट एवं बहुमूल्य वस्त्र वाला) धर्म है वह महायशस्वी पार्श्वनाथ ने बताया है।" ॥२९॥
हे मेधाविन् ! एक ही उद्देश्य से प्रवृत्त इन दोनों (धर्मों) में भेद का कारण क्या है ? दो प्रकार के वेष (लिंग) को देखकर आपको संशय क्यों नहीं होता ? ॥३०॥