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प्रकीर्णक
१९१३
उ. देवानुप्रिय ! हम इस अर्थ को नहीं जानते हैं, नहीं देखते हैं,
यदि आप देवानुप्रिय को इस अर्थ को कहने में श्रम न हो तो हम देवानुप्रिय आपके पास से इसे जानना चाहते हैं।
उ. णो खलु वयं देवाणुप्पिया ! एयमट्ठ जाणामो वा पासामो
वा, तं जइ णं देवाणुप्पिया ! एयमलृ णो गिलायंति परिकहित्तए, तमिच्छामो णं देवाणुप्पियाणं अंतिए एयमठें जाणित्तए। "अज्जो ! ति समणे भगवं महावीरे गोयमाई समणे निग्गंथे आमंतेत्ता एवं वयासी
“दुक्खभया पाणा समणाउसो!" प. से णं भंते ! दुक्खे केण कडे? उ. गोयमा ! जीवेणं कडे पमाएणं। प. से णं भंते ! दुक्खे कहं वेइज्जति?
उ. गोयमा ! अप्पमाएणं। -ठाणं. अ. ३, उ. २, सु. १७४ ५६. जुज्झमाणाणं पुरिसाणं जय-पराजय हेऊ परूवणंप. दो भंते ! पुरिसा सरित्तया सरिव्वया सरिसभंडमत्तो
वगरणा अन्नमन्त्रेणं सद्धिं संगाम संगामेंति, तत्थ णं एगे पुरिसे पराइणइ, एगे पुरिसे पराइज्जइ,से कहमेयं भंते !
एवं?
उ. गोयमा ! सवीरिए पराइणइ, अवीरिए पराइज्जइ।
प. से केणढेणं भंते ! एवं वुच्चइ
'सवीरिए पराइणइ, अवीरिए पराइज्जइ।'
उ. गोयमा ! जस्स णं वीरियवज्झाई कम्माई नो बधाई, नो
पुट्ठाई जाव नो अभिसमन्नागयाई, नो उदिण्णाई, उवसंताई भवंति, सेणं पुरिसे पराइणइ। जस्स णं वीरियवज्झाई कम्माइं बद्धाइं पुट्ठाइं जाव अभिसमन्नागयाइं उदिण्णाई कम्माइं नो उवसंताई भवंति, से णं पुरिसे पराइज्जइ। से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ'सवीरिए पराइणइ, अवीरिए पराइज्जइ।'
-विया.स.१,उ.८,सु.९ ५७. अंगभूय अंतट्ठिय वत्थू समवाएणं रायगिह नयर परूवणं-
'हे आर्यों' श्रमण भगवान् महावीर ने गौतम आदि श्रमण निर्ग्रन्थों को आमन्त्रित कर इस प्रकार कहा
हे आयुष्मान् श्रमणों ! जीव दुःख से भयभीत होते हैं। प्र. भन्ते ! वह दुःख किसके द्वारा किया गया है? उ. गौतम ! जीवों के द्वारा अपने प्रमाद से किया गया है। प्र. भन्ते ! दुःख का वेदन (क्षय) कैसे होता है?
उ. गौतम ! जीवों के द्वारा प्रमाद नहीं करने से क्षय होता है। ५६. युद्ध करते हुए पुरुषों के जय-पराजय हेतु का प्ररूपणप्र. भन्ते ! एक सरीखे, एक सरीखी चमड़ी वाले, समानवयस्क,
समान द्रव्य और उपकरण (शस्त्रादि साधन) वाले कोई दो पुरुष परस्पर एक-दूसरे के साथ संग्राम करे तो उनमें से एक पुरुष जीतता है और एक पुरुष हारता है तो भन्ते ! ऐसा क्यों
होता है? उ. गौतम ! जो पुरुष सवीर्य (वीर्यवान् शक्तिशाली) होता है वह
जीतता है और जो वीर्यहीन होता है वह हारता है। प्र. भन्ते! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि__'जो पुरुष सवीर्य होता है वह जीतता है और जो वीर्यहीन होता
है वह हारता है। उ. गौतम ! जिसने वीर्य-विधातक कर्म नहीं बाँधे हैं, नहीं स्पर्श
किये हैं यावत् प्राप्त नहीं किये हैं और उसके वे कर्म उदय में नहीं आए हैं परन्तु उपशान्त हैं वह पुरुष जीतता है। जिसने वीर्य विघातक कर्म बाँधे हैं, स्पर्श किये हैं यावत् प्राप्त किये हैं, उसके वे कर्म उदय में आए हैं परन्तु उपशान्त नहीं हुए हैं, वह पुरुष पराजित होता है। इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि'सवीर्य पुरुष विजयी होता है और वीर्यहीन पुरुष पराजित
होता है।' ५७. अंगभूत और अंतःस्थित वस्तु समूह के द्वारा राजगृह नगर
का प्ररूपणउस काल और उस समय में यावत् गौतम स्वामी ने श्रमण
भगवान महावीर से इस प्रकार पूछाप्र. भन्ते ! यह राजगृह नगर क्या कहलाता है ?
क्या पृथ्वी राजगृह नगर कहलाती है? क्या जल राजगृह नगर कहलाता है? क्या अग्नि, वायु और वनस्पति राजगृह नगर कहलाते हैं ? क्या टंक, कूट, शैल, शिखरी और प्राग्भार राजगृह नगर कहलाते हैं? क्या जल, थल, बिल, गुफा और लयन राजगृह नगर कहलाते हैं ? क्या उज्झर (जलप्रपात) झरना, निर्झर, चिल्लल (दलदल) पल्लल (जलाशय) वप्रीण (नदी आदि के किनारे का क्षेत्र) राजगृह नगर कहलाते हैं?
तेणं कालेणं तेणं समएणं जाव एवं वयासी
प. किमिदं भंते ! नगरं रायगिहं ति पवुच्चइ?
किं पुढवी नगरं रायगिह ति पवुच्चइ? किं आऊ नगरं रायगिहं ति पवुच्चइ? किं तेऊ, वाऊ, वणस्सई नगरं रायगिह ति पवुच्चइ? किं टंका, कूडा, सेला, सिहरी, पब्भारा नगरं रायगिह ति पवुच्चइ? किं जल-थल-बिल-गुह-लेणा-नगरं रायगिह ति पवुच्चइ?
किं उज्झर-निज्झर-चिल्लल-पल्लल-वप्पिणा नगरं रायगिह ति पवुच्चइ?