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कर्मसिद्धान्त का व्यवस्थित निरूपण उपलब्ध होता है। दिगम्बर ग्रन्थ षट्खण्डागम एवं कषायपाहुड में भी कर्म का विशद विवेचन है। श्वेताम्बर आगमों में मुख्यतः प्रज्ञापनासूत्र, व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र एवं स्थानांगसूत्र में कर्म का विवेचन उपलब्ध होता है। द्रव्यानुयोग के कर्म अध्ययन में कर्म का सर्वांगीण निरूपण संक्षेप में उपलब्ध है। आगमों में कर्म के विविध पक्षों पर चर्चा है। जो कर्मग्रन्थों में प्रायः नहीं मिलती है, इसलिए आगमों में निरूपित कर्म-विवेचन का विशेष महत्त्व है। यह अवश्य है कि कर्मग्रन्थों में कर्मसिद्धान्त का व्यवस्थित प्रतिपादन है, जबकि आगमों में वह बिखरा हुआ है। द्रव्यानुयोग के कर्म अध्ययन में उसका एकत्र संग्रह किया गया है।
कर्मसिद्धान्त के सम्बन्ध में जैनदर्शन की मान्यताएँ अद्भुत हैं। उन मान्यताओं को संक्षेप में इस प्रकार रखा जा सकता है-(१) जीव अपने द्वारा किये गये शुभाशुभ कर्मों का फल स्वयं भोगता है। (२) कर्मों का फल प्रदान करने के लिए किसी नियन्ता या ईश्वर को मानने की आवश्यकता नहीं है। (३) जीव जिन कर्मों से आबद्ध होता है वे कर्म ही स्वयं समय आने पर फल प्रदान करते हैं। (४) कर्म दो प्रकार के माने गये हैं-(१) द्रव्यकर्म और (२) भावकर्म। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय एवं योगरूप हेतुओं से जो किया जाता है वह भावकर्म है। किसी अपेक्षा से राग-द्वेषादि को भी भावकर्म कह दिया जाता है। भावकर्म के कारण कार्मण-वर्गणाएँ जब जीव के साथ बंध को प्राप्त हो जाती हैं तो वे द्रव्यकर्म कही जाती हैं। (५) द्रव्यकर्म ही जीव को समय आने पर फल प्रदान करते हैं। (६) जीव एवं कर्म का अनादि सम्बन्ध है, किन्तु इस सम्बन्ध का अन्त किया जा सकता है, क्योंकि यह सम्बन्ध दो भिन्न द्रव्यों का है। (७) कर्मयुक्त जीव को संसारी जीव कहा जाता है, क्योंकि वह संसार में एक गति से दूसरी गति में परिभ्रमण करता रहता है। जो जीव पूर्णतः कर्ममुक्त हो जाता है उसे सिद्ध जीव कहते हैं। (८) जीव के जो स्वाभाविक गुण हैं वे भी विभिन्न कर्मों के कारण आवरित हो जाते हैं। जैसे ज्ञानावरणकर्म से ज्ञानगुण एवं दर्शनावरणकर्म से दर्शनगुण आवरित हो जाता है। मोहनीयकर्म से सम्यक्त्व एवं अन्तरायकर्म से दानादि लब्धियाँ प्रभावित होती हैं। (९) कर्म आठ प्रकार के माने गये हैं-(१) ज्ञानावरण, (२) दर्शनावरण, (३) वेदनीय, (४) मोहनीय, (५) आयुष्य, (६) नाम, (७) गोत्र
और (८) अन्तराय। (१०) इन आठ कर्मों में से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय एवं अन्तराय को घातिकर्म कहा जाता है क्योंकि ये चारों कर्म आत्म-गुणों का घात करते हैं। शेष चार कर्मों-वेदनीय, आयुष्य, नाम एवं गोत्र को अघातिकर्म कहा जाता है, क्योंकि ये आत्म-गुणों का घात नहीं करते हैं। (११) कर्मों को पाप एवं पुण्यकर्मों के रूप में भी विभक्त किया जाता है। आठ कर्मों से चार घातिकर्म तो पापरूप ही होते हैं, किन्तु अघातिकर्म पाप एवं पुण्य दोनों प्रकार के होते हैं, यथा-वेदनीयकर्म के दो भेदों में सातावेदनीय को पुण्यरूप एवं असातावेदनीय को पापरूप कहा जाता है। (१२) कर्म के चार रूप माने गये हैं-(१) प्रकृतिकर्म, (२) स्थितिकर्म, (३) अनुभावकर्म और (४) प्रदेशकर्म। बद्धकर्मों के स्वभाव को प्रकृतिकर्म, उनके ठहरने की कालावधि को स्थितिकर्म, फलदान-शक्ति को अनुभावकर्म तथा परमाणु-पुद्गलों के संचय को प्रदेशकर्म कहते हैं। (१३) सभी प्रकार के कर्मों का इन चार रूपों में बंध होता है। उदयादि भी इन चार रूपों में होता है। (१४) कर्मसिद्धान्त में बंध, उदय, उदीरणा, सत्ता, उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण, निधत्त और निकाचित् करण का बड़ा महत्त्व है। कर्म-प्रकृतियों का बँधना बंध कहलाता है। उनका फल प्रदान करते समय प्रकट होना उदय है तथा उदयकाल के पूर्व जो प्रक्रिया होती है उसे उदीरणा कहते हैं। तप आदि के माध्यम से कर्मों की उदीरणा कभी-कभी समय के पूर्व भी हो जाती है। जब बँधा हुआ कर्म उदीरणा, उदय आदि को प्राप्त न हो तो उसे सत्ता में स्थित कर्म कहा जाता है। जब बँधे हुए कर्म की उत्तर प्रकृतियों की स्थिति एवं अनुभाव में वृद्धि होती है तो उसे उत्कर्षण कहते हैं तथा जब उनके स्थिति एवं अनुभाव में कमी आती है तो उसे अपकर्षण कहा जाता है। जब कर्म की उत्तर प्रकृति उसी कर्म की अन्य उत्तर प्रकृति में परिवर्तित होती है तो इसे संक्रमण कहा जाता है। जिस कर्म का उत्कर्षण एवं अपकर्षण न हो उसे निधत्त कहते हैं तथा जब कर्म-प्रकृतियों का संक्रमण भी न हो तो उसे निकाचितकरण कहते हैं। (१५) कर्म अगरुलघ होते हैं. तथापि कर्म से जीव विविध रूपों में परिणत होते हैं एवं उनका फल भोगते हैं। (१६) ज्ञानावरणादि आठ कर्मों की ९७ उत्तर प्रकृतियाँ हैं। किसी अपेक्षा से १२२, १४८ और १५८ उत्तर प्रकृतियाँ भी गिनी जाती हैं। इनमें मुख्यतः नामकर्म की प्रकृतियों की संख्या में अन्तर आता है, अन्य में नहीं। (१७) ज्ञानावरण से अन्तराय तक के सभी कर्म पाँच वर्ण, दो गंध, पाँच रस और चार स्पर्श वाले होते हैं। (१८) बँधे हुए कर्म जीव के साथ जितने समय तक टिकते हैं उसे उनका स्थितिकाल कहते हैं। (१९) बद्धकर्म का उदयरूप या उदीरणारूप प्रवर्तन जिस काल में नहीं होता उसे अबाधा या अबाधाकाल कहते हैं। कर्मों के उदयाभिमुख होने का काल निषेक काल है। अबाधाकाल सामान्यतः कर्म के उत्कृष्ट स्थितिकाल के अनुपात में होता है। (२०) आत्मा ही अपने कर्मों का कर्ता एवं वही उनका विकर्ता है। अर्थात् बंधन में भी वही प्राप्त होता है एवं मुक्त भी वही होता है। (२१) कर्म चैतन्यकृत होते हैं, अचैतन्यकृत नहीं। (२२) कर्मों के सम्बन्ध में एक यह मान्यता चल पड़ी है कि बद्धकर्मों का वेदन किये बिना मोक्ष नहीं होता। किन्तु यह मान्यता एकान्त रूप से सत्य नहीं है। आगम में दो प्रकार के कर्म प्रतिपादित हैंप्रदेशकर्म और अनुभागकर्म। इनमें से प्रदेशकर्म अवश्य भोगना पड़ता है, किन्तु अनुभागकर्म का वेदन आवश्यक नहीं है। जीव किसी अनुभागकर्म का वेदन करता है और किसी का नहीं, क्योंकि वह संक्रमण, स्थितिघात, रसघात आदि के द्वारा उन्हें परिवर्तित कर सकता है एवं निर्जरा भी कर सकता है। वेदना
जीव को सुख-दुःख आदि का अनुभव होना वेदना है। जिसका वेदन किया जाता है उसे भी उपचार से वेदना कहते हैं। वेदनीयकर्म से वेदना का गहरा सम्बन्ध है। वेदनीयकर्म के दो भेद हैं-साता एवं असाता। वेदना का अनुभव प्रायः इन दो ही प्रकारों में विभक्त होता है, तथापि वेदना के विविध पक्षों के आधार पर उसके अनेक भेद निरूपित हैं। स्पर्श के आधार पर वेदना तीन प्रकार की है-(१) शीत, (२) उष्ण एवं (३) शीतोष्ण। वेदना शारीरिक, मानसिक एवं उभयविध होने से भी तीन प्रकार की होती है। वह साता, असाता एवं साता-असाता के रूप में भी वेदित होती है। उसे दुःखरूप, सुखरूप एवं अदुःख-सुखरूप वेदित होने से भी तीन प्रकार का कहा गया है। वेदना का वेदन-(१) द्रव्यतः, (२) क्षेत्रतः, (३) कालतः एवं (४) भावतः होने से वेदना के चार प्रकार भी हैं।
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