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के हैं-(१) स्त्रीवेद, (२) पुरुषवेद और (३) नपुंसकवेद। वेद शब्द बाह्य लिङ्ग का द्योतक नहीं है। स्त्री आदि के बाह्य लिङ्ग होने पर भी वेद का होना आवश्यक नहीं है। वीतरागी पुरुषों के बाह्य लिङ्ग तो बना रहता है, किन्तु काम-वासनारूप वेद क्षय को प्राप्त हो जाता है। नवें गुणस्थान के वाद तीन वेदों में से किसी का भी उदय नहीं रहता है।
स्त्रीवेद का तात्पर्य है स्त्री के द्वारा पुरुष से सहवास की इच्छा। पुरुषवेद का अर्थ है पुरुष द्वारा स्त्री के सहवास की अभिलाषा। नपुंसकवेद से दोनों के साथ ही सहवास की अभिलाषा होती है।
एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, सम्मूर्छिम तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय, सम्मूर्छिम मनुष्य एवं समस्त नैरयिक जीवों में नपुंसकवेद होता है। देवों में दो वेद होते हैं-(१) स्त्रीवेद एवं (२) पुरुषवेद। गर्भज तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय एवं गर्भज मनुष्यों में तीनों वेद पाये जाते हैं। चार गतियों के चौबीस दण्डकों में मनुष्य का ही एक दण्डक ऐसा है जो अवेदी भी हो सकता है।
मैथुन प्रवृत्ति पाँच प्रकार की कही गई है-(१) कायपरिचारणा, (२) स्पर्शपरिचारणा, (३) रूपपरिचारणा, (४) शब्दपरिचारणा एवं (५) मनःपरिचारणा। काया से सहवास कायपरिचारणा है, मात्र स्पर्श से मैथुन सेवन स्पर्शपरिचारणा है। इसी प्रकार रूप एवं शब्द से परिचारणा संभव है। परिचारणा का अन्तिम भेद मनःपरिचारणा है। इसमें मन से ही मैथुन सेवन किया जाता है। कषाय
संसार में जीव के परिभ्रमण का प्रमुख कारण कषाय है। कषाय ही कर्मबंध का प्रमुख हेतु है। राजवार्तिक में 'कषाय' शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए कहा गया है-"कषत्यात्मानं हिनस्ति इति कषायः।"१ अर्थात् जो आत्मा के स्वभाव को कषता है, हिंसित करता है वह कषाय है। सर्वार्थसिद्धि में कषायों को कषाय नामक न्यग्रोधादि की उपमा दी गई है। जिस प्रकार न्यग्रोधादि संश्लेष के कारण होते हैं उसी प्रकार क्रोधादि कषाय भी कर्मबंध में संश्लेष के कार्य करते हैं।
कषाय चार प्रकार के प्रतिपादित हैं-(१) क्रोध, (२) मान, (३) माया और (४) लोभ। क्रोध का अर्थ है संरभ या रोष।३ क्रोध से अशान्ति उत्पन्न होती है तथा क्षमाशीलता भंग होती है। मानकषाय अहंकार का द्योतक है तथा विनय का नाशक है। मायाकषाय सरलता का नाशक है, सत्य से दूर ले जाता है। इसे छल, कपट आदि शब्दों से परिभाषित किया जाता है। मायावी व्यक्ति भीतर एवं बाहर से अलग-अलग होता है। लोभकषाय जीव में तृष्णा एवं इच्छाओं को प्रोत्साहन देता है। इसे उत्तराध्ययनसूत्र में सर्वनाशक कहा गया है।
ये चारों कषाय एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के सभी चौबीस दण्डकों में पाये जाते हैं। जैनदर्शन में पृथ्वीकाय, अकाय, तेजस्काय, वायुकाय एवं वनस्पतिकाय में भी क्रोधादि कषायों को स्वीकार करना जैनधर्म-दर्शन की सूक्ष्मता का परिचायक है। आधुनिक विज्ञान ने भी वनस्पति में चेतना एवं भय, क्रोधादि आवेगों की उत्पत्ति स्वीकार की है।
कषायों का कथन राग-द्वेष के रूप में भी किया जाता है। तब क्रोध एवं मान को द्वेष में तथा माया एवं लोभ को राग में सम्मिलित किया जाता है। यह विभाजन आगमों में सीधा-सीधा प्राप्त नहीं होता है, किन्तु व्यवहार में इसका प्रचलन है।
चार कषायों में प्रत्येक कषाय चार-चार प्रकार का प्रतिपादित है। वे चार प्रकार हैं-(१) अनन्तानुबंधी, (२) अप्रत्याख्यानावरण, (३) प्रत्याख्यानावरण और (४) संज्वलन। आगमों में इन्हें समझाने के लिए विविध दृष्टान्त दिये गये हैं, जो इन भेदों की तीव्रता एवं मन्दता को अभिव्यक्त करते हैं।
अनन्तानुबंधी आदि पदों का क्या अभिप्राय है, इसे यदि जीवन-व्यवहार में देखें तो कहा जा सकता है कि जो कषाय अनन्त अनुबंधयुक्त होता है, जो निरन्तर सघन बना रहता है वह अनन्तानुबंधी है। अनन्तानुबंधी कषायचतुष्क का बंध दूसरे गुणस्थान तक होता है तथा उदय चतुर्थ गुणस्थान तक होता है। अप्रत्याख्यानावरण कषायचतुष्क अनन्तानबंधी कषायचतष्क से कम सघन होता है। इसका बंध एवं उदय चतर्थ गुणस्थान तक ही होता है। सम्यग्दृष्टि प्राप्त हो जाने पर भी अप्रत्याख्यानावरण के कारण विरति प्राप्त नहीं होती। प्रत्याख्यानावरण चतुष्क का बंध एवं उदय पाँचवें गुणस्थान तक होता है, अर्थात् इसमें भागों का पूर्ण त्याग नहीं होता। श्रावक होने तक इसका बंध एवं उदय रहता है। संज्वलन कषायचतुष्क अत्यल्प होता है। इस कषाय का स्फुरण मात्र होता है। संज्वलन क्रोध, मान, माया एवं लोभ का बंध नवें गुणस्थान के वाद नहीं होता जबकि उदय दसवें गुणस्थान तक रहता है।
हमें क्रोध, मान, माया एवं लोभ के स्थूल रूप का तो अनुभव होता रहता है, किन्तु इनकी सूक्ष्मता एवं निरन्तरता का अनुभव नहीं होता. जवकि हम इन कषायों से सदैव घिरे हुए हैं। साधक जब उत्तरोत्तर साधना में आगे बढ़ता जाता है तो उसे कषायों पर विजय प्राप्त होती है एवं वह उनकी सूक्ष्मता को जानने में समर्थ होता है। कर्म
जैनागमों में कर्म का सूक्ष्म विवेचन विद्यमान है। कम्मपयडि एवं कर्मग्रन्थों का निर्माण भी आगमों के आधार पर हुआ है, जिनमें
१. तत्त्वार्थवार्तिक, भारतीय ज्ञानपीठ २/६, पृ. १०८ २. सर्वार्थसिद्धि, भारतीय ज्ञानपीठ ६/४, पृ. २४६ ३. क्रोधो रोषः संरंभः इत्यर्थान्तरम्। ४. दृष्टान्त द्रव्यानुयोग, भाग २, पृ. १०७० पर द्रष्टव्य हैं।
-धवला टीका ६/१,९.१,२३/४१/४
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