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- १८७१ ) २. पुद्गलों का भेद होने पर शब्द की उत्पत्ति होती है।
पुद्गल अध्ययन २. भिज्जताणं चेव पोग्गलाणं सदुप्पाए सिया।
-ठाणं.अ.२,उ.२,सु.७३ (९) १०७. सद्दादिणं पोग्गल रूवत्त परूवणं
सइंधयार उज्जोओ, पहा छाया तवे इवा। वण्ण-रस-गंध-फासा, पोग्गलाणं तु लक्खणं ।। एगत्तं च पुहत्तंच,संखा संठाणमेव य। संजोगा य विभागा य, पज्जवाणं तु लक्खणं।
-उत्त. अ.२८,गा.१२-१३ १०८. सद्दाईणं एगत्तं
एगे सद्दे, एगे रूवे, एगे गंधे, एगे रसे, एगे फासे। एगे सुब्भिसद्दे, एगे दुब्भिसद्दे। एगे सुरूवे,एगे दुरूवे। एगे दीहे, एगे हस्से। एगे वट्टे, एगे तंसे, एगे चउरंसे, एगे पिहुले, एगे परिमंडले।
१०७. शब्दादि का पुद्गल रूपत्व प्ररूपण
शब्द, अन्धकार, उद्योत, प्रभा,छाया और आतप तथा वर्ण रस, गन्ध, और स्पर्श ये पुद्गल के लक्षण हैं। एकत्व, पृथक्त्व, (भिन्नत्व) संख्या, संस्थान (आकार) संयोग और विभाग-(पुद्गल) ये पर्यायों के लक्षण हैं।
१०८. शब्दादि का एकत्व
एक शब्द, एक रूप, एक गंध, एक रस, एक स्पर्श। एक शुभ शब्द, एक अशुभशब्द। एक सुरूप, एक कुरूप। एक दीर्घ, एक ह्रस्व। एक वृत्त, एक त्र्यम्र, एक चतुरन, एक पृथुल (चौडा), एक परिमण्डल। एक कृष्ण, एक नील, एक रक्त, एक पीत, एक शुक्ल।
एगे किण्हे, एगे नीले, एगे लोहिए, एगे हालिद्दे, एगे सुक्किल्ले। एगे सुब्भिगंधे, एगे दुब्भिगंधे। एगे तित्ते, एगे कडुए, एगे कसाए, एगे अंबिले, एगे महुरे।
एगे कक्खडे जाव एगे लुक्खे। -ठाणं. अ.१, सु.३८ १०९. सद्दाईणं विविहपयारेण भेय पखवणं
दुविहा सद्दा पण्णत्ता,तं जहा१. अत्ता चेव,
२.अणत्ता चेव। एवं इट्ठा जाव मणामा। दुविहा रूवा पण्णत्ता,तं जहा१. अत्ता चेव,
२.अणत्ता चेव। एवं इट्ठा जाव मणामा। एवं गंधा, रसा, फासा, एवमिक्किक्के छ-छ आलावगा भाणियव्या।
-ठाणं.अ.२, उ.३,सु.७५ ११०. पयोगबंध-वीससाबंधनाम बंधभेयजुर्ग
प. कइविहे णं भंते ! बंधे पण्णते? उ. गोयमा ! दुविहे बंधे पण्णत्ते,तं जहा
१. पयोगबंधे य,
२ वीससाबंधे य। -विया.स.८, उ.९,सु.१ १११. वीससाबंधस्स वित्थरओ परूवणं
प. वीससाबंधे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते? उ. गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते,तं जहा
१. साईयवीससाबंधे य,
२. अणाईयवीससा बंधे य। प. अणाईयवीससाबंधेणं भंते ! कइविहे पण्णत्ते? उ. गोयमा ! तिविहे पण्णत्ते,तं जहा
एक सुगंध, एक दुर्गन्ध। एक तिक्त, एक कटुक, एक कषाय, एक अम्ल, एक मधुर।
एक कर्कश-यावत् एक रुक्ष। १०९. शब्दादि पुद्गलों के विविध प्रकार से भेदों का प्ररूपण
शब्द दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा१. आत्त (ग्रहण किये हुए), २.अनात्त (अग्रहीत) इसी प्रकार इष्ट यावत् मनाम दो दो प्रकार के कहने चाहिए। रूप दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा१. आत्त,
२. अनात्त, इसी प्रकार इष्ट यावत् मनाम दो-दो प्रकार के कहने चाहिए। इसी प्रकार गंध, रस और स्पर्श के भेद कहने चाहिए। इस प्रकार प्रत्येक के छह-छह आलापक कहने चाहिए।
११०. प्रयोगबन्ध विश्रसाबन्ध नामक दो बंध भेद
प्र. भंते ! बन्ध कितने प्रकार का कहा गया है? उ. गौतम ! बन्ध दो प्रकार का कहा गया है, यथा
१. प्रयोगबन्ध (प्रयोग से होने वाला बंध),
२. विश्रसाबंध (स्वाभाविक रूप से होने वाला बन्ध)। १११. विश्रसाबंध का विस्तार से प्ररूपण
प्र. भंते ! विश्रसाबंध कितने प्रकार का कहा गया है? उ. गौतम ! वह दो प्रकार का कहा गया है, यथा
१. सादिक विश्रसाबन्ध,
२. अनादिक विश्रसाबन्ध। प्र. भंते! अनादिक विश्रसाबन्ध कितने प्रकार का कहा गया है? उ. गौतम ! वह तीन प्रकार का कहा गया है, यथा