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प्रकीर्णक
- १८९९)
१०. अत्थोप्पायणस्स हेउ तिविहत्तं
तिविहा अत्थजोणी पण्णत्ता,तं जहा
-१०. अर्थोपार्जन हेतु के तीन प्रकार
अर्थयोनि (राज्य वैभव प्राप्ति के उपाय) तीन प्रकार की कही गई है, यथा१. साम, २. दण्ड, ३. भेद।
१. सामे, २. दंडे, ३. भेए।
-ठाणं. अ.३,उ.३,सु. १९१(११) ११. विवक्खया इंदाणं तिविहत्तं
तओ इंदा पण्णत्ता,तं जहा१. णामिंदे, २. ठवणिंदे, ३. दव्विंदे। तओ इंदा पण्णत्ता,तं जहा१. णाणिंदे, २. दंसणिंदे, ३. चरित्तिदे। तओ इंदा पण्णत्ता,तं जहा१. देविंदे, २. असुरिंदे, ३. मणुस्सिंदे।
-ठाणं. अ.३, उ.१, सु. १२७ १२. विणिच्छियस्स तिविहत्तं
तिविहे विणिच्छिए पन्नते, तं जहा
११. विवक्षा से इन्द्रों के तीन प्रकार
इन्द्र तीन प्रकार के कहे गए हैं, यथा१. नामइन्द्र-केवल नाम के इन्द्र, २. स्थापनाइन्द्र-किसी वस्तु में इन्द्र का आरोपण, ३. द्रव्यइन्द्र-भूत या भावी इन्द्र। इन्द्र तीन प्रकार के कहे गए हैं, यथा१. ज्ञानेन्द्र, २. दर्शनेन्द्र, ३. चारित्रेन्द्र। इन्द्र तीन प्रकार के कहे गए हैं, यथा१. देवेन्द्र, २. असुरेन्द्र, ३. मनुष्येन्द्र।
१२. विनिश्चय के तीन प्रकार
विनिश्चय (अर्थादि के स्वरूप का परिज्ञान) तीन प्रकार का कहा गया है, यथा१. अर्थ-विनिश्चय, २. धर्म-विनिश्चय,
३. काम-विनिश्चय। १३. श्रमण माहनों के अभिसमागम के तीन प्रकार
अभिसमागम (जानना) तीन प्रकार का कहा गया है, यथा१. ऊर्ध्व, २. अधः, ३. तिर्यक्। तथारूप-श्रमण-माहन को जब अतिशय ज्ञान-दर्शन प्राप्त होता है तब वह पहले ऊर्ध्व लोक को जानता है फिर तिर्यक् लोक को जानता है और उसके बाद अधोलोक को जानता है। हे आयुष्मन् श्रमणों ! अधोलोक सबसे अधिक दुरभिगम कहा गया है।
१. अत्थविणिच्छिए, २. धम्मविणिच्छिए,
३. कामविणिच्छिए, -ठाणं. अ.३, उ.३, सु. १९४/९ १३. समणमाहणाणं अभिसमागमस्स तिविहत्तं
तिविहे अभिसमागमे पन्नते,तं जहा१. उड्ढे, २. अहं, ३. तिरियं। जया णं तहारूवस्स समणस्स वा, माहणस्स वा अइसेसे नाण-दसणे समुप्पज्जइ, से णं तप्पढमयाए उड्ढमभिसमेइ, तओ तिरियं तओ पच्छा अहे। अहोलोगे णं दुरभिगमे पण्णत्ते, समणाउसो!
-ठाणं. अ.३, उ.४,सु.२१३ १४. सूराणं चउव्विहत्त परूवणं
चत्तारि सूरा पण्णत्ता,तं जहा१. खंतिसूरे,
२. तवसूरे, ३. दाणसूरे,
४. जुद्धसूरे। १ खंतिसूरा अरहंता, २. तवसूरा अणगारा, ३. दाणसूरे वेसमणे, ४. जुद्धसूरे वासुदेवे। -ठाणं.अ.४, उ.३,सु.३१७ संत गुणाणं विनास-विकास चउ हेऊचउहि ठाणेहिं संते गुणे नासेज्जा, तं जहा१. कोहेणं,
२. पडिनिवेसेणं, ३. अकयण्णुयाए, ४. मिच्छत्ताभिनिवेसेणं। चउहि ठाणेहिं संते गुणे दीवेज्जा, तं जहा
१४. शूरों के चार प्रकार
शूर चार प्रकार के कहे गए हैं, यथा१. क्षमा शूर,
२. तपःशूर, ३. दान शूर,
४. युद्ध शूर। १. अर्हन्त क्षमा शूर हैं, २. अनगार तप:शूर हैं, ३. वैश्रमण (कुबेर) दान शूर हैं, ४. वासुदेव युद्ध शूर हैं। विद्यमान गुणों का विनाश-विकाश के चार हेतुचार स्थानों (कारणों) से विद्यमान गुण नष्ट होते हैं, यथा१. क्रोध से,
२. प्रतिनिवेश-ईर्ष्या से, ३. अकृतज्ञता से, ४. मिथ्याभिनिवेश-दुराग्रह से। चार स्थानों (कारणों) से विद्यमान गुण उद्दीप्त (प्रकाशित) होते हैं, यथा१. अभ्यास करने की वृत्ति होने से, २. दूसरों के गुणों का अनुसरण करने से,
१. अब्भासवत्तियं, २. परच्छंदाणुवत्तियं,