________________
१५४६
हा सका
उ. गोयमा ! जहन्नेणं इक्कस्स वा, दोण्हं वा, तिण्हं वा, उक्कोसेणं सयपुहत्तस्स जीवाणं पुत्तत्ताए हव्वमागच्छइ।
-विया. स.२, उ. ५, सु.७ १२. एगभवग्गहणं पडुच्च एग जीवस्स पुत्त संखाप. एगजीवस्स णं भंते ! एगभवग्गहणेणं केवइया जीवा
पुत्तत्ताए हव्वमागच्छंति? उ. गोयमा ! जहन्नेणं एक्को वा, दो वा, तिण्णि वा,
उक्कोसेणं सयसहस्सपुहत्तं जीवाणं पुत्तत्ताए
हव्वमागच्छति। प. से केणढेणं भंते ! एवं वुच्चइ
"जहण्णेणं एक्को वा, दो वा, तिण्णि वा, उक्कोसेणं
सयसहस्सपुहत्तं जीवाणं पुत्तत्ताए हव्वमागच्छंति?' उ. गोयमा ! इत्थीए य पुरिसस्स य कम्मकडाए जोणीए
मेहुणवत्तिए नामं संजोए समुष्पज्जइ।
द्रव्यानुयोग-(३) उ. गौतम ! एक जीव एक भव में जघन्य एक, दो या तीन जीवों
का और उत्कृष्ट शत पृथकत्व (दो सौ से नौ सौ तक) जीवों
का पुत्र हो सकता है। १२. एक भव ग्रहण की अपेक्षा एक जीव के पुत्रों की संख्याप्र. भंते ! एक जीव के एक भव में कितने जीव पुत्र रूप में (उत्पन्न)
हो सकते हैं ? उ. गौतम ! जघन्य एक, दो या तीन जीव और उत्कृष्ट
लक्षपृथक्त्व (दो लाख से लेकर नौ लाख तक) जीव पुत्र रूप
में उत्पन्न हो सकते हैं। प्र. भंते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि
"जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट लक्षपृथक्त्व जीव पुत्र
रूप में उत्पन्न हो सकते हैं ?" उ. गौतम ! (कर्मकृत नामकर्म से निष्पन्न और वेदोदय से) योनि
में स्त्री और पुरुष का जब मैथुनवृत्तिक सम्भोग निमित्तक संयोग निष्पन्न होता है। तब उन दोनों के स्नेह से पुरुष के वीर्य और स्त्री के रज का संयोग सम्बन्ध होता है और संयोग होने पर उसमें से जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट लक्षपृथक्त्व (दो लाख से लेकर नौ लाख तक) जीव पुत्र रूप में उत्पन्न हो सकते हैं। इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि"जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट लक्षपृथक्त्व जीव पुत्र रूप में उत्पन्न हो सकते हैं।"
ते दुहओ सिणेहं संचिणंति संचिणित्ता तत्थ णं जहन्नेणं एक्को वा, दो वा, तिण्णि वा, उक्कोसेणं सयसहस्सपुहत्तं जीवाणं पुत्तत्ताए हव्वमागच्छति। से तेणढेणं गोयमा !एवं वुच्चइ"जहण्णेणं एक्को वा, दो वा, तिण्णि वा उक्कोसेणं सयसहस्स पुहत्तं जीवाणं पुत्तत्ताए हव्वमागच्छंति।"
-विया. स. २, उ.५, सु.८ १३. जीव सरीरे माइ पिइअंग परूवणं
प. कइणं भंते ! माइअंगा पण्णत्ता? उ. गोयमा !तओ माइअंगा पण्णत्ता,तं जहा
१.मंसे,२.सोणिए,३. मत्थुलुंगे।' प. कइणं भंते ! पिइअंगा पण्णत्ता? . उ. गोयमा ! तओ पिइअंगा पण्णत्ता, तं जहा१.अट्ठि,२.अट्ठिमिंजा,३.केसमंसुरोमनहे।
-विया.स.१, उ.७, सु. १६-१७ १४. माइ-पिइअंगाणं कायटिठई परूवणंप. अम्मपिइए अंगाणं भंते ! सरीरए केवइयं कालं
संचिठ्ठइ? उ. गोयमा ! जावइयं से कालं भवधारणिज्जे सरीरए
अव्ववन्ने भवइ, एवइयं काले संचिट्ठति, अहे णं समए-समए वोक्कसिज्जमाणे-वोक्कसिज्जमाणे चरमकालसमयंसि वोच्छिन्ने भवंति।
-विया.स.१, उ.७, सु. १८ १५. जीव-चउवीसदंडएसु एगत्त-पुहत्तेणं विग्गहगइ समावन्नगाइ
परूवणंप. जीवे णं भंते ! किं विग्गहगइसमावन्नए
अविग्गहगइसमावन्नए? १. ठाणं अ. ३, उ. ४, सु. २०९
१३. जीवके शरीर में माता-पिता के अंगों का प्ररूपण
प्र. भंते ! (जीव के शरीर में) माता के अंग कितने कहे गए हैं ? उ. गौतम ! माता के तीन अंग कहे गए हैं, यथा
१. मांस, २. शोणित (रक्त), ३. मस्तक का भेजा (दिमाग)। प्र. भंते ! पिता के कितने अंग कहे गए हैं ? उ. गौतम ! पिता के तीन अंग कहे गए हैं, यथा
१. हड्डी,२. मज्जा, ३. केश, दाढी, मूंछ, रोम, नख।
१४. माता-पिता के अंगों की कायस्थिति का प्ररूपण
प्र. भंते ! माता-पिता के अंग शरीर में कितने काल तक रहते हैं ?
उ. गौतम ! भवधारणीय शरीर जितने समय तक रहता है, उतने
समय तक वे अंग रहते हैं और भवधारणीय शरीर प्रति समय क्षीण होते-होते अन्तिम समय में वे (अंग भी) नष्ट हो जाते हैं तब माता-पिता के वे अंग भी नष्ट हो जाते हैं।
१५. जीव-चौवीस दंडकों में एकत्व बहुत्व की विग्रहगति का
प्ररूपणप्र. भंते ! क्या जीव विग्रहगतिसमापन्नक है या अविग्रहगति
समापन्नक है?