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गम्मा अध्ययन
सो चेव अप्पणा जहण्णकालट्ठिईओ जाओ जहण्णेणं पलिओवमट्ठिईएसु, उक्कोसेण वि पलिओवमट्टिईएसु उववज्जेज्जा। सेसा वत्तव्वया पढम गमग सरिसा, णवर-ओगाहणा जहण्णेणं धणुपुहत्तं, उक्कोसेणं दो गाउयाई। ठिई जहण्णेणं पलिओवम, उक्कोसेण वि पलिओवमं।
कालादेसेणं जहण्णेणं दो पलिओवमाइं, उक्कोसेण वि दो पलिओवमाइं, एवइयं कालं सेवेज्जा, एवइयं कालं गतिरागतिं करेज्जा। (चउत्थ पंचम छट्ठ गमा) सो चेव अप्पणा उक्कोसकालट्ठिईओ जाओ, आइल्लगमगसरिसा तिण्णि गमगा नेयव्या।
णवरं-ठिई कालादेसं च उवउंजिऊण जाणेज्जा। (सत्तम अट्ठम नवम गमा)
एवं एए सत्त गमा भवंति। प. भंते ! जइ संखेज्जवासाउयसण्णिपंचिंदिय तिरिक्ख
जोणिएहिंतो उववज्जति-किं पज्जत्त संखेज्जवासाउय सण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति, अपज्जत्त संखेज्जवासाउय सण्णिपंचिंदिय तिरिक्व
जोणिएहिंतो उववज्जति? ' उ. गोयमा ! संखेज्जवासाउयस्स जहेव असुरकुमारेसु
उववज्जमाणस्स तहेव नव वि गमा भाणियव्वा।
१६६९ वही स्वयं जघन्य काल की स्थिति वाला हो और सौधर्म देवों में उत्पन्न हो तो जघन्य एक पल्योपम और उत्कृष्ट भी एक पल्योपम की स्थिति वाले सौधर्म देवों में उत्पन्न होता है। शेष कथन प्रथम गमक के अनुसार जानना चाहिए। विशेष-अवगाहना जघन्य धनुष पृथक्त्व और उत्कृष्ट दो गाउ की होती है। स्थिति जघन्य पल्योपम की और उत्कृष्ट भी पल्योपम की होती है। कालादेश से जघन्य दो पल्योपम और उत्कृष्ट भी दो पल्योपम जितना काल व्यतीत करता है और इतने ही काल तक गमनागमन करता है। (यह चौथा, पांचवां, छट्ठा गमक है) वही स्वयं उत्कृष्ट काल की स्थिति वाला हो और सौधर्म देवों में उत्पन्न हो तो उसके इन अन्तिम तीन गमकों (७-८-९)का कथन प्रथम के तीन गमकों के समान जानना चाहिए। विशेष-स्थिति और कालादेश उपयोगपूर्वक कहना चाहिए। (यह सातवाँ आठवाँ नौवाँ गमक है)
इस प्रकार ये सात गमक होते हैं। प्र. भंते ! यदि वह सौधर्म देव संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी
पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों से आकर उत्पन्न हो तो क्या पर्याप्त संख्यात वर्षायुष्क संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं या अपर्याप्त संख्यात वर्षायुष्क संज्ञी. पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च
योनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं ? उ. गौतम ! असुरकुमारों में उत्पन्न होने वाले संख्यात वर्षायुष्क
संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च के समान ही इसके नौ गमक जानने चाहिए। विशेष-स्थिति और संवेध उपयोगपूर्वक समझना चाहिए। जब वह स्वयं जघन्य काल की स्थिति वाला हो तो तीनों गमकों में सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि होता है, किन्तु सम्यग्मिथ्यादृष्टि नहीं होता है। इसमें दो ज्ञान या दो अज्ञान नियमतः होते हैं।
णवरं-ठिई संवेहं च उवउंजिऊण जाणेज्जा। जाहे य अप्पणा जहण्णकालट्ठिईओ भवइ ताहे तिसु वि गमएसु सम्मदिट्ठी वि, मिच्छादिट्ठी वि, नो सम्मामिच्छादिट्ठी। दो नाणा, दो अण्णाणा नियम। (१-९)
-विया. स. २४, उ. २४, सु.१-८ ७२. सोहम्मगदेवेसु उववज्जंतेसु मणुस्साणं उववायाइ वीसं दारं
परूवणंजइ मणुस्सेहिंतो उववज्जंति, इच्चेवं भेदो जहेव जोइसिएस उववज्जमाणस्स तहा इह विभाणियव्या।
प. असंखेज्जवासाउयसण्णिमणस्से णं भंते ! जे भविए
सोहम्मे कप्पे देवत्ताए उववज्जित्तए,से णं भंते ! केवइयं कालट्ठिईएसु उववज्जेज्जा?
७२. सौधर्मदेव में उत्पन्न होने वाले मनुष्यों के उपपातादि बीस द्वारों
का प्ररूपणयदि वह (सौधर्मदेव) मनुष्यों से आकर उत्पन्न होता है इत्यादि भेदों का कथन ज्योतिष्क देवों में उत्पन्न होने वाले मनुष्यों के समान यहां भी करना चाहिए। प्र. भंते ! असंख्यात वर्ष की आयु वाला संज्ञी मनुष्य जो
सौधर्मकल्प में देवरूप से उत्पन्न होने योग्य है तो भंते! वह कितने काल की स्थिति वाले सौधर्मकल्प के देवों में उत्पन्न
होता है? उ. गौतम ! सौधर्मकल्प में उत्पन्न होने वाले असंख्यात वर्षायुष्क
संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक के समान सातों ही गमक यहाँ मनुष्य में भी कहने चाहिए।
उ. गोयमा ! एवं जहेव असंखेज्जवासाउयस्स
सण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स सोहम्मे कप्पे उववज्जमाणस्स वत्तव्वया भणिया तहेव सत्त गमगाणं वत्तव्यया इह मणुस्से विभाणियव्वा।