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गम्मा अध्ययन
सेसा सव्वा वत्तव्वया जहा एयस्स चेव सोहम्म उववज्जमाणस्स भणिया तहा भाणियब्वा, णवरं-सणंकुमारट्ठिई संवेहं च उवउंजिऊण जाणेज्जा।
जाहे य अप्पणा जहण्णकालट्ठिईओ भवइ ताहे तिसु वि गमएसु पंच लेस्साओ आदिल्लाओ। मणुस्सेहिंतो उववज्जमाणस्स सव्या वत्तव्वया जहा मणुस्साणं सक्करप्पभाए उववज्जमाणाणं भणिया तहेव नव वि गमा इह विभाणियव्वा। णवरं-सणंकुमारट्ठिई संवेहं च उवउंजिऊण जाणेज्जा।
जहा सणंकुमारगदेवाणं वत्तव्वया तहा माहिंदगदेवाण वि सव्वा वत्तव्यया भाणियव्या। णवरं-माहिंदगदेवाणं ठिई जहण्णेणं साइरेगं दो सागरोवमं उक्कोसेणं साइरेगं सत्त सागरोवमं। एवं बंभलोगदेवाण वि वत्तब्वया, णवरं-बंभलोगट्ठिई संवेहं च उवउंजिऊण जाणेज्जा।
१६७१ सौधर्म देवलोक में इसी के उत्पन्न होने पर जो कथन है वही यहां पर भी कहना चाहिए। विशेष-सनत्कुमार की स्थिति और संवेध उपयोगपूर्वक कहना चाहिए। जब वह स्वयं जघन्य काल की स्थिति वाला होता है तब तीनों ही गमकों में प्रारम्भ की पांच लेश्याएं होती है। यदि सनत्कुमार देव मनुष्यों से आकर उत्पन्न हो तो शर्कराप्रभा में उत्पन्न होने वाले मनुष्यों के समान यहां भी नौ गमक का समग्र वर्णन कहना चाहिए। विशेष-सनत्कुमार देवों की स्थिति और संवेध उपयोगपूर्वक जानना चाहिए। जिस प्रकार सनत्कुमार देवों का कथन किया उसी प्रकार माहेन्द्र देवों का भी समग्र कथन जानना चाहिए। विशेष-माहेन्द्र देवों की स्थिति जघन्य साधिक दो सागरोपम उत्कृष्ट साधिक सात सागरोपम कहनी चाहिए। इसी प्रकार ब्रह्मलोकदेवों का भी कथन करना चाहिए। विशेष-ब्रह्मलोकदेव की स्थिति और संवेध उपयोगपूर्वक जानना चाहिए। इसी प्रकार सहनारदेव पर्यन्त जानना चाहिए। विशेष-स्थिति और संवेध उपयोगपूर्वक कहना चाहिए। लान्तक, महाशुक्र और सहस्रार देवों में उत्पन्न होने वाले जघन्य स्थिति वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक के तीनों ही गमकों में छहों लेश्याएं कहनी चाहिए। ब्रह्मलोक और लान्तक देवों में उत्पन्न होने वाले तिर्यञ्च में प्रथम के पांच संहनन होते हैं। महाशुक्र और सहस्रार में उत्पन्न होने वाले तिर्यञ्च में आदि के चार संहनन होते हैं। मनुष्यों के भी संहनन इसी प्रकार जानने चाहिए।
एवं जाव सहस्सारो, णवरं-ठिई संवेहं च उवउंजिऊण जाणेज्जा। लंतगादीणं जहण्णकालट्ठिईयस्स तिरिक्खजोणियस्स तिस विगमएसु छप्पि लेस्साओ भाणियव्वाओ।
संघयणाणि बंभलोग-लंतएस उववज्जमाणाणं पंच आदिल्लगाणि, महासुक्क सहस्सारेसु उववज्जमाणाणं चत्तारि, एवं मणुस्साण वि संघयणाइं जाणेज्जा।
-विया. स. २४, उ.२४, सु. १२-२० ७४. आणयाइ अच्चुयपज्जंत देवे उववज्जतेसु मणुस्सेसु उववायाइ
वीसं दारं परूवणंप. आणयदेवा णं भंते ! कओहिंतो उववज्जति? उ. गोयमा ! उववाओ जहा सहस्सारदेवाणं,
णवरं-तिरिक्खजोणिया खोडेयव्वा।
प. पज्जत्तासंखेज्जवासाउयसण्णिमणस्से णं भंते ! जे भविए
आणयदेवेसु उववज्जित्तए से णं भंते ! केवइयं
कालट्ठिईएसु उववज्जेज्जा? उ. गोयमा ! जहण्णेणं अट्ठारससागरोवमं ठिईएसु उक्कोसेणं
एगणवीसं सागरोवमं ठिईएसु उववज्जेजा। सेसा वत्तव्वया जहेव सहस्सारेसु उववज्जमाणाणं भणिया तहा भाणियव्वा, णवरं-तिण्णि संघयणाणि, भवादेसेणं-जहण्णेणं तिण्णि भवग्गहणाई, उक्कोसेणं सत्त भवग्गहणाई।
७४. आनत आदि से अच्युत पर्यन्त देवों में उत्पन्न होने वाले मनुष्यों
के उपपातादि बीस द्वारों का प्ररूपणप्र. भंते ! आनतदेव कहां से आकर उत्पन्न होते हैं ? उ. गौतम ! सहसारदेवों के समान यहां उपपात कहना चाहिए। विशेष-यहां तिर्यञ्चयोनिक की उत्पत्ति का निषेध करना
चाहिए। प्र. भंते ! संख्यात वर्ष की आयु वाला पर्याप्तक संज्ञी मनुष्य जो
आनतदेवों में उत्पन्न होने योग्य है तो भन्ते ! वह कितने काल
की स्थिति वाले आनतदेवों में उत्पन्न होता है? उ. गौतम ! जघन्य अठारह सागरोपम, उत्कृष्ट उन्नीस सागरोपम
की स्थिति में उत्पन्न होता है। शेष कथन सहनारदेवों में उत्पन्न होने वाले मनुष्यों के समान यहां भी कहना चाहिए। विशेष-इसमें प्रथम के तीन संहनन होते हैं। भवादेश से-जघन्य तीन भव और उत्कृष्ट सात भव ग्रहण करता है।