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घि ये दो भेद है। परिमण्डल। वर्ण के पाँच अनुसार हैं। स्थानांगसूत्र मल, २. वृत्त, ३. त्रिक
पुद्गल अध्ययन : आमुख जो वर्ण, गंध, रस एवं स्पर्शयुक्त है वह पुद्गल है। एक परमाणु से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कन्ध में ये वर्णादि गुण पाए जाते हैं। जिस द्रव्य में वर्ण, गंध, रस एवं स्पर्श नहीं पाया जाता वह पुद्गल से भिन्न द्रव्य होता है। ऐसे द्रव्य पाँच हैं-धर्म, अधर्म, आकाश, काल एवं जीव। ये पाँचों द्रव्य इन्द्रियगोचर नहीं होते क्योंकि ये वर्णादि से रहित होते हैं। जो इन्द्रियगोचर होता है वह पुद्गल ही होता है किन्तु पुद्गल के परमाणु, द्विप्रदेशी स्कन्ध आदि ऐसे सूक्ष्म अंश भी हैं जिन्हें इन्द्रियों से नहीं जाना जा सकता। ये अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान अथवा केवलज्ञान के विषय होते हैं। पुद्गल का एक निरुक्तिपरक अर्थ यह किया जाता है कि जो पूरण एवं गलन अवस्था को प्राप्त हों वे पुद्गल हैं। संघात से ये पूरण अवस्था को तथा भेद से गलन अवस्था को प्राप्त होते हैं। एक अन्य परिभाषा के अनुसार पुरुष अर्थात् जीव जिन्हें शरीर, आहार, विषय और इन्द्रिय उपकरण आदि के रूप में ग्रहण करता है वे पुद्गल हैं।
समस्त जगत् में पुद्गल ही एक ऐसा द्रव्य है जो मूर्त है, रूपी है अर्थात् रूप (वर्ण), रस, गंध एवं स्पर्श से युक्त है। इनके अतिरिक्त पुद्गल में संस्थान अर्थात् आकार का भी वैशिष्ट्य होता है। यह संस्थान छह प्रकार का होता है-१. परिमण्डल, २. वृत्त, ३. त्रिकोण, ४. चतुष्कोण, ५. आयत (लम्बा) और ६. अनियत। संस्थान के ये छह भेद व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र के अनुसार हैं। स्थानांगसूत्र में इसके सात भेद भी हैं-१. दीर्घ, २. ह्रस्व, ३. वृत्त, ४. त्रिकोण, ५. चतुष्कोण, ६. पृथुल और ७. परिमण्डल। वर्ण के पाँच भेद प्रसिद्ध हैं-१. काला, २. नीला, ३. लाल, ४. पीला और ५. श्वेत। गंध के १. सुरभिगंध और २. दुरभिगंध ये दो भेद हैं। रस के १. तिक्त, २. कटु, ३. कषैला, ४. खट्टा और ५. मीठा ये पाँच प्रकार हैं। स्पर्श के ८ प्रकार हैं१. कर्कश, २. मृदु, ३. गुरु, ४. लघु, ५. शीत, ६. उष्ण,७. रुक्ष और ८. स्निग्ध।
मुख्यतया परमाणु और स्कन्ध (नो परमाणु पुद्गल) के रूप में विभक्त पुद्गल को विभिन्न दृष्टियों से भिन्न-भिन्न प्रकार के भेदों में बाँटा जाता है, यथा-स्कन्ध की अपेक्षा उसे भिदुर स्वभाव वाला तथा परमाणु के अविभाज्य होने के कारण उसे अभिदुर स्वभाव वाला कहा गया है। स्कन्ध का भेद (खण्डन) होने के कारण उसे भिन्न तथा परमाणुओं का संघात होने के कारण उसे अभिन्न कहा गया है। इन्द्रिय ग्राह्य पुद्गल बादर तथा शेष सूक्ष्म हैं। जिन पुद्गलों को जीव ग्रहण करता है वे आत्त तथा जिन्हें ग्रहण नहीं करता वे अनात्त कहलाते हैं। इसी प्रकार मन को अभीप्सित मनोज्ञ तथा अनभीप्सित अमनोज्ञ भेद बनते हैं।
जैनदर्शन की गणित में एक से लेकर दस तक की संख्या के पश्चात् संख्यात, असंख्यात और अनन्त शब्दों का प्रयोग होता है। इसीलिए परमाणु के पश्चात् द्विप्रदेशी पुद्गल, त्रिप्रदेशी पुद्गल, चारप्रदेशी, पाँचप्रदेशी यावत् दस प्रदेशी पुद्गलों का वर्णन करने के अनन्तर संख्यातप्रदेशी, असंख्यातप्रदेशी और अनन्तप्रदेशी पुद्गलों का वर्णन हुआ है। परमाणु को अप्रदेशी माना गया है। एक परमाणु पुद्गल एक वर्ण, एक गंध, एक रस
और दो स्पर्श वाला कहा गया है। द्विप्रदेशी स्कन्ध कदाचित् एक वर्ण वाला, कदाचित् दो वर्ण वाला, कदाचित् एक गंध वाला, कदाचित् दो गंध वाला, कदाचित् एक रस वाला, कदाचित् दो रस वाला, कदाचित् दो स्पर्श वाला, कदाचित् तीन स्पर्श वाला और कदाचित् चार स्पर्श वाला कहा गया है। इस प्रकार त्रिप्रदेशी आदि स्कन्धों में रस एवं वर्ण की संख्या कदाचित् बढ़ती जाती है। इससे द्विकसंयोगी, त्रिकसंयोगी वर्णादि की अपेक्षा अनेक भङ्ग बन जाते हैं। इस गणित से परमाणु में वर्णादि के कुल १६ भंग, द्विप्रदेशी स्कन्ध में ४२ भंग, त्रिप्रदेशी स्कन्ध में १२० भंग, चतुष्प्रदेशी स्कन्ध में २२२ भंग, पंचप्रदेशी स्कन्ध में ३२४ भंग, षट्प्रदेशी स्कन्ध में ४१४ भंग, सप्तप्रदेशी स्कन्ध में ४७४ भंग, अष्टप्रदेशी स्कन्ध में ५०४ भंग, नवप्रदेशी स्कन्ध में ५१४ भंग और दसप्रदेशी स्कन्ध में ५१६ भंग होते हैं। संख्यातप्रदेशी, असंख्यातप्रदेशी और सूक्ष्म परिणत अनन्त प्रदेशी पुद्गलों में भी इसी प्रकार ५१६ भंग होते हैं। बादर परिणाम वाले अनन्त प्रदेशी स्कन्ध के १२९६ भंग होते हैं। इसमें स्पर्श के कदाचित् चार भेद यावत् कदाचित् आठ भेद पाए जाते हैं। ___संसारी जीव आठ कर्मों से युक्त होने के कारण पुद्गल से पूर्णतया सम्बद्ध हैं। शरीर, इन्द्रिय, मन आदि जो जीव को मिले हैं वे भी इस कारण पौद्गलिक हैं। जीव को परभाव में ले जाने वाले जो प्राणातिपात आदि अठारह पाप हैं वे भी इस दृष्टि से पौद्गलिक हैं तथा वर्ण, गंध, रस एवं स्पर्श से युक्त हैं। यद्यपि ये पाप बिना जीव के होना संभव नहीं है तथापि ये जीव के स्वभाव नहीं है अपितु जीव को परभाव में ले जाते हैं इसलिए आगम में इन्हें पौद्गलिक माना है। यही कारण है कि राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया एवं लोभ में भी वर्ण, गंध, रस एवं स्पर्श माने गए हैं। दिगम्बराचार्य कुन्दकुन्द भी समयसार में इसी प्रकार का निरूपण करते हैं। जीव को जो स्वभाव में लाते हैं ऐसे गुणों में वर्णादि की सत्ता स्वीकार नहीं की गयी है, यथा प्राणातिपात-विरमण आदि में तथा क्रोध-विवेक यावत् मिथ्यादर्शनशल्य-विवेक में वर्णादि की सत्ता नहीं है। ये वर्ण, गंध, रस एवं स्पर्श से रहित होते हैं। ज्ञान एवं दर्शन भी वर्णादि से रहित होते हैं, इसलिए १. अवग्रह, २. ईहा, ३. अवाय एवं ४. धारणा तथा औत्पत्तिकी आदि चार प्रकार की बुद्धियों को भी वर्णादि से रहित प्रतिपादित किया गया है। चारित्र भी वर्णादि से रहित होता है अतः उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार पराक्रम को भी वर्णादि से रहित माना गया है। किन्तु अष्टविध कर्मों को पाँच वर्ण, दो गन्ध, पाँच रस और चार स्पर्शयुक्त निरूपित किया गया है।
द्रव्य-लेश्या वर्ण, गंध, रस एवं स्पर्श युक्त है जबकि भाव-लेश्या इनसे रहित है। ज्ञान एवं दर्शन के साथ दृष्टि, अज्ञान एवं आहार आदि चार संज्ञाओं को वर्णादि से रहित माना गया है। आहार आदि संज्ञाएँ वर्णादि से रहित हैं क्योंकि ये स्वाभाविक हैं, परन्तु केवली, कवलाहार के अतिरिक्त भय, मैथुन एवं परिग्रह संज्ञाओं से ग्रस्त नहीं होता अतः इन्हें वर्णादि से रहित मानने पर प्रश्न चिह्न खड़ा होता है। औदारिक, वैक्रिय, आहारक एवं तैजस् शरीर पाँच वर्ण, दो गंध, पाँच रस एवं आठ स्पर्श वाले हैं जबकि कार्मणशरीर चतुःस्पर्शी है। इन शरीरों के कारण नैरयिक, देव, तिर्यञ्च एवं मनुष्य गति के जीव वर्णादि से युक्त माने जाते हैं। कार्मण शरीर की अपेक्षा ये चतुःस्पर्शी तथा अन्य शरीरों की अपेक्षा अष्ट स्पर्शी होते हैं। मनोयोग एवं वचनयोग चतुःस्पर्शी हैं तथा काययोग अष्ट स्पर्शी हैं।
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