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। द्रव्यानुयोग-(३)]
एवं एक्केक्केणं संठाणेणं पंच विचारेयव्वा।
-विया.स.२५ उ.३, सु.२२-२७ ३३. सत्तसु नरयपुढवीसु सोहम्माइकप्पेसु ईसीपब्भाराए पुढवीए
पंचसुजवमज्झेसुसंठाणेसुअणंतत्तंप. जत्थ णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए एगे परिमंडले
संठाणे जवमझे तत्थ परिमंडला संठाणा किं संखेज्जा,
असंखेज्जा,अणता? उ. गोयमा ! नो संखेज्जा,असंखेज्जा, अणंता। प. जत्थ णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए एगे परिमंडले
संठाणे जवमज्झे तत्थ वट्टा संठाणा किं संखेज्जा,
असंखेज्जा, अणंता? उ. गोयमा ! एवं चेव।
एवं जाव आयता। प. जत्थ णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए एगे वट्टे
संठाणे जवमज्झे तत्थ णं परिमंडला संठाणा किं संखेज्जा,
असंखेज्जा,अणता? उ. गोयमा ! नो संखेज्जा,नो असंखेज्जा,अणंता। प. जत्थ णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए एगे वट्टे
संठाणे जवमज्झे तत्थ णं वट्टा संठाणा किं संखेज्जा,
असंखेज्जा,अणंता? उ. गोयमा ! एवं चेव,
एवं जाव आयता। एवं पुणरवि एक्केक्केणं संठाणेणं पंच विचारेयव्वा जहेव हेट्ठिल्ला जाव आयतेणं। एवं जाव अहेसत्तमाए। एवं कप्पेसु विजावईसीपब्भाराए पुढवीए।
-विया. स. २५, उ.३.सु.२८-३६ पगारान्तरेणं ओवणिहिय खेत्ताणुपुव्वी सरूव परूवणंअहवा-ओवणिहिया खेत्ताणुपुव्वी तिविहा पण्णत्ता,तं जहा१.पुव्वाणुपुव्वी, २. पच्छाणुपुव्वी, ३.अणाणुपुवी। प. से किं तं पुव्वाणुपुव्वी? उ. पुव्वाणुपुव्वी एगपएसोगाढे दुपएसोगाढे जाव
दसपएसोगाढे जाव असंखेज्ज पएसोगाढे। से तं
पुव्वाणुपुवी। प. से किं तं पच्छाणुपुव्वी? उ. पच्छाणुपुव्वी असंखेज्ज पएसोगाढे जाव एगपएसोगाढे।
से तं पच्छाणुपुव्वी। प. से किं तं अणाणुपुव्वी? उ. अणाणुपुव्वी एयाए चेव एगादियाए एगुत्तरियाए
असंखेज्जगच्छायाए सेढीए अन्नमन्नब्भासो दुरूवूणो। से तं अणाणुपुव्वी। से तं ओवणिहिया खेत्ताणुपुव्वी। से तं खेत्ताणुपुव्वी।
-अणु.सु. १७८-१७९
इसी प्रकार एक-एक संस्थान के साथ पांचों संस्थानों के
सम्बन्ध का कथन करना चाहिए। ३३. सात नरकपृथ्वियों, सौधर्मादि कल्पों और ईषत्प्राग्भारापृथ्वी
में पांच यव मध्य संस्थानों का अनन्तत्वप्र. भंते ! इस रत्नप्रभापृथ्वी में जहाँ एक यवाकार परिमण्डल
संस्थान है, वहाँ क्या अन्य परिमण्डलसंस्थान संख्यात हैं,
असंख्यात हैं या अनन्त हैं? उ. गौतम ! वे संख्यात और असंख्यात नहीं हैं, किन्तु अनन्त हैं। प्र. भंते ! इस रत्नप्रभापृथ्वी में जहाँ एक यवाकार परिमण्डल
संस्थान है वहाँ क्या अन्य वृत्त संस्थान संख्यात हैं, असंख्यात
हैं या अनन्त हैं? उ. गौतम ! पूर्ववत् अनन्त हैं।
इसी प्रकार आयत-संस्थान पर्यन्त जानना चाहिए। प्र. भंते ! इस रत्नप्रभापृथ्वी में जहाँ एक यवाकार वृत्तसंस्थान है,
वहाँ क्या अन्य परिमण्डल संस्थान संख्यात हैं, असंख्यात हैं
या अनन्त हैं? उ. गौतम ! वे संख्यात या असंख्यात नहीं हैं किन्तु अनन्त हैं। प्र. भंते ! इस रत्नप्रभापृथ्वी में जहाँ एक यवाकार वृत्तसंस्थान है,
वहाँ क्या अन्य वृत्त संस्थान संख्यात हैं, असंख्यात हैं या
अनन्त हैं? उ. गौतम ! पूर्ववत् अनन्त हैं।
इसी प्रकार आयत संस्थान पर्यन्त जानना चाहिए। इसी प्रकार प्रत्येक संस्थान के साथ पांचों संस्थानों का आयत संस्थान पर्यंत कथन करना चाहिए। इसी प्रकार अधःसप्तमपृथ्वी पर्यंत कहना चाहिए। इसी प्रकार (वैमानिक) कल्पों से ईषत्प्राग्भारापृथ्वी पर्यन्त
के विषय में जानना चाहिए। प्रकारान्तरसे औपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी के स्वरूप का प्ररूपणअथवा-ओपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी तीन प्रकार की कही गई है, यथा१. पूर्वानुपूर्वी, २. पश्चानुपूर्वी, ३. अनानुपूर्वी। प्र. औपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी की पूर्वानुपूर्वी का क्या स्वरूप है? उ. एक प्रदेशावगाढ, द्विप्रदेशावगाढ यावत् दसप्रदेशावगाढ
यावत् असंख्यातप्रदेशावगाढ के क्रम से क्षेत्र के कथन को
पूर्वानुपूर्वी कहते हैं। प्र. पश्चानुपूर्वी का क्या स्वरूप है? उ. असंख्यातप्रदेशावगाढ यावत् एक प्रदेशावगाढ रूप में व्युत्क्रम ' से क्षेत्र के कथन को पश्चानुपूर्वी कहते हैं। प्र. अनानुपूर्वी का क्या स्वरूप है? उ. एक से प्रारम्भ कर एकोत्तर वृद्धि असंख्यात प्रदेशों पर्यन्त की
स्थापित श्रेणी को परस्पर गुणा करने से निष्पन्न राशि में से आदि और अंतिम इन दो रूपों को कम करने पर क्षेत्रविषयक अनानुपूर्वी बनती है। यह औपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी है। यह क्षेत्रानुपूर्वी है।