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द्रव्यानुयोग - ( ३ )
विभिन्न पृथ्वियों के मध्य अवकाशान्तर वर्णादि से रहित हैं किन्तु सप्तम पृथ्वी से प्रथम पृथ्वी तक, तनुवात, घनवात, घनोदधि तथा जम्बूद्वीप से स्वयम्भूरमण समुद्रपर्यन्त, सौधर्मकल्प से ईषयान्भारा पृथ्वी पर्यन्त, नैरविकावास से वैमानिकाचास पर्यन्त सब वर्णादि सहित हैं तथा आठ स्पर्श युक्त हैं। इनमें कुछ द्रव्य वर्णादि रहित हैं तथा कुछ वर्णादि सहित हैं किन्तु ये अन्योन्य स्पृष्ट एवं अन्योन्य सम्बद्ध रहते हैं।
पुद्गल के भेद एवं संघात का व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र में विस्तार से विवेचन है। पुद्गलों का संघात एवं भेद कभी अपने स्वभाव से होता है और कभी दूसरे के निमित्त से होता है। परमाणु पुद्गलों के मिलने से स्कन्ध का निर्माण होता है तथा पुद्गल का अधिकतम विभाजन परमाणु पुद्गल के रूप में होता है। श्रमण भगवान् महावीर से गौतम स्वामी के इस सन्दर्भ में बड़े रोचक प्रश्नोत्तर हुए हैं। दो परमाणुओं के मिलने से द्विप्रदेशिक स्कन्ध बनता है तथा उसका विभाजन होने पर दो परमाणु पुद्गल निकलते हैं। इसी प्रकार तीन परमाणु पुद्गलों के मिलने से त्रिप्रदेशिक स्कन्ध यावत् दस परमाणु पुद्गलों के मिलने से दशप्रदेशिक स्कन्ध बनते हैं। इनका विभाजन होने में अनेक विकल्प हो सकते हैं। यथा-त्रिप्रादेशिक स्कन्ध का विभाजन होने पर एक द्विप्रदेशिक स्कन्ध और एक परमाणु भी रह सकता है तथा तीन विभाग होने पर तीन परमाणु पुद्गल भी हो सकते हैं। इस प्रकार के विकल्पों की संख्या दशप्रदेशिक स्कन्ध में और बढ़ जाती है। संख्यात परमाणु-पुद्गलों के मिलने पर संख्यातप्रदेशिक स्कन्ध, असंख्यात परमाणु- पुद्गालों के मिलने पर असंख्यातप्रदेशिक स्कन्ध तथा अनन्त परमाणु पुद्गलों के मिलने पर अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध बनता है। इन सबका भेदन होने पर अनेक विकल्प बनते हैं जिनमें एक विकल्प यह भी है कि संख्यातप्रदेशिक स्कन्ध का भेदन होने पर संख्यात परमाणु पुद्गल, असंख्यातप्रदेशिक स्कन्ध का भेदन होने पर असंख्यात परमाणु पुद्गल तथा अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध का भेदन होने पर अनन्त परमाणु पुद्गल रहते हैं।
एक परमाणु गति करने पर एक समय में लोक के अन्त भाग तक पहुँच सकता है। परमाणु की इस प्रकार की गति का वर्णन अन्य किसी भारतीय दर्शन में नहीं है तथा यह वैज्ञानिकों के लिए भी शोध की प्रेरणा का स्रोत बन सकता है। वैज्ञानिकों के अनुसार इस समय सर्वाधिक गतिशील वस्तु प्रकाश है जो एक सेकण्ड में लगभग ३ लाख किलोमीटर की दूरी तय करता है। जैन दर्शन के अनुसार प्रकाश भी पुद्गल का ही एक प्रकार है। पुद्गल की गि इससे भी तीव्र हो सकती है। एक परमाणु एक समय में सम्पूर्ण लोक तक पहुँच सकता है। पुद्गल की इस गति का वर्णन आश्चर्यकारी है। भगवतीसूत्र में वर्णित अस्पृशद् गति से भी इसका समर्थन होता है। स्थानांग सूत्र में तीन कारणों से पुद्गल का प्रतिघात बतलाया गया है- १. एक परमाणु-पुद्गल दूसरे परमाणु पुद्गल से टकराकर प्रतिहत होता है, २. रुक्ष स्पर्श से प्रतिहत होता है तथा ३. लोकान्त में जाकर प्रतिहत होता है।
पुद्गल में पर्याय की अपेक्षा निरन्तर परिवर्तन हो रहा है तथापि उसके परिणमन को तीन भागों में विभक्त किया जाता है-१. प्रयोग परिणत पुद्गल, २. विनसा परिणत पुद्गल और ३. मिश्र परिणत पुद्गल । जीव द्वारा गृहीत पुद्गलों को प्रयोग परिणत पुद्गल, स्वभावतः परिणत पुद्गलों को विनसा परिणत पुद्गल तथा प्रयोग और स्वभाव दोनों के द्वारा परिणत पुद्गलों को मिश्र परिणत पुद्गल कहते हैं। संसारी जीवों को जाति के आधार पर पाँच भागों में विभक्त किया गया है-एकेन्द्रिय, डीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय इन जीवों के आधार पर प्रयोग परिणत पुद्गल के पाँच भेद निरूपित हैं-एकेन्द्रिय प्रयोग परिणत पुद्गल यावत् पंचेन्द्रिय प्रयोग परिणत पुद्गल । एकेन्द्रिय प्रयोग परिणत पुद्गल भी पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय के आधार पर पाँच प्रकार का होता है। हीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय एवं चतुरिन्द्रिय प्रयोग परिणत पुद्गल अनेक प्रकार के होते हैं तथा पंचेन्द्रिय प्रयोग परिणत पुद्गलों को नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव के आधार पर चार प्रकार का कहा गया है। फिर इनके भी भेदोपभेदों के प्रयोग परिणत पुद्गलों का इस अध्ययन में वर्णन हुआ है।
प्रयोग परिणत पुद्गलों एवं मिश्र परिणत पुद्गलों का नौ दण्डकों अथवा द्वारों से इस अध्ययन में विस्तृत एवं सूक्ष्म निरुपण हुआ है। प्रथम दण्डक में तो जीव के एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के भेदोपभेदों के प्रयोग परिणत एवं मिश्र परिणत पुद्गलों का निरूपण है। द्वितीय दण्डक में सूक्ष्म एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, नैरयिक, मनुष्य, तिर्यञ्च एवं देवों के पर्याप्त एवं अपर्याप्त अवस्था में परिणत पुद्गलों की चर्चा है। तीसरे दण्डक में शरीर तथा चौथे दण्डक में इन्द्रियों के आधार पर प्रयोग परिणत एवं मिश्र परिणत पुद्गलों का विचार हुआ है। पाँचवें दण्डक में कौन-सा शरीरधारी किन इन्द्रियों से प्रयोग परिणत एवं मिश्र परिणत है इसका निरूपण है। छठे दण्डक में यह उल्लेख है कि अपर्याप्त एकेन्द्रिय से लेकर पर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरीपपातिक पंचेन्द्रिय तक के सभी जीव पाँच वर्ण, दो गन्ध, पाँच रस, आठ स्पर्श एवं पाँच संस्थान परिणत है। पाँच संस्थान हैं- परिमण्डल, वृत्त, त्र्यम्र, चतुरस्र और आयत। सातवें दण्डक में इन जीवों को शरीरादि के साथ जोड़कर वर्णादि का निरूपण हुआ है। आठवें दण्डक में इन्हें इन्द्रियादि के साथ जोड़कर तथा नवें दण्डक में शरीर एवं इन्द्रिय दोनों से जोड़कर कृष्णवर्ण यावत् अष्टस्पर्श का कथन है।
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विना अर्थात् स्वभाव से अपने आप परिणत पुद्गल पाँच प्रकार के होते हैं-१, वर्ण परिणत, २ गंध परिणत, ३. रस परिणत, ४. स्पर्श परिणत और ५. संस्थान परिणत । वर्ण परिणत के पुनः कृष्ण आदि पाँच, गंध के सुरभि आदि दो, रस के तिक्त आदि पाँच, स्पर्श के कर्कश आदि आठ तथा संस्थान के परिमण्डल आदि पाँच भेद होते हैं।
भगवान् से प्रश्न किया गया कि क्या एक पुद्गल द्रव्य प्रयोग परिणत होता है, मिश्रपरिणत होता है या विनसा परिणत होता है ? इसका उत्तर देते हुए भगवान् ने कहा- गौतम । एक पुद्गल द्रव्य प्रयोग परिणत भी होता है, मिश्र परिणत भी होता है और विश्वमा परिणत भी होता है। जब वह द्रव्य प्रयोग परिणत होता है तब वह मन, वचन एवं काय प्रयोग परिणत भी होता है। मन, वचन एवं काय के भेदों में भी परिणत होता है किन्तु यह परिणमन जिन जीवों में जितना शक्य है, उतना होता है। जैसे एक द्रव्य वायुकायिक एकेन्द्रिय वैक्रिय शरीरकाय प्रयोग परिणत होता है किन्तु वायुकाय के अतिरिक्त एकेन्द्रिय वैक्रियशरीरकाय प्रयोग परिणत नहीं होता है, पंचेन्द्रिय वैकियशरीर कायप्रयोग परिणत हो जाता है। आहारक शरीर एवं आहारकमिश्र शरीर काय प्रयोग का परिणमन आहारक लब्धि युक्त प्रमत्त संयत मनुष्य में होता है, अन्य में नहीं।
वही द्रव्य जब मिश्र परिणत होता है तो मनोमिश्र परिणत भी होता है, वचनमिश्र परिणत भी होता है और कायमिश्र परिणत भी होता है। मन के सत्य, मृषा, सत्यमृषा एवं असत्य-अमृषा भेदों में तथा वचन के सत्य, मृषा, सत्यमृषा एवं असत्य-अमृषा भेदों में भी परिणत होता है। काय के औदारिक शरीर, औदारिक मिश्र शरीर वैकियशरीर, वैक्रियमिश्रशरीर, आहारक, आहारकमिश्र तथा कार्मण शरीरकाय भेदों में भी यथाशक्य प्रयोग परिणमन होता है।