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आत्मा अध्ययन : आमुख
आगम में आत्मा एवं जीव शब्द एकार्थक हैं। तथापि आत्मा शब्द जीव का विशिष्ट एवं सूक्ष्म विवेचन करता है। इस आत्मा को जीवात्मा भी कहा गया है। कुछ अन्यतीर्थिकों के अनुसार प्राणातिपात, मृषावाद यावत् मिथ्यादर्शनशल्य नामक अठारह पापों में प्रवर्तमान प्राणी का जीव अन्य है और जीवात्मा उससे भिन्न है किन्तु भगवान महावीर इस मान्यता को मिथ्या बतलाते हुए प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य में प्रवर्तमान प्राणी को ही जीव तथा जीवात्मा निरूपित करते हैं। यही नहीं वे इन पापों से विरत प्राणी को भी जीव एवं जीवात्मा शब्द से पुकारते हैं। व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र के अनुसार इस अध्ययन में अन्यतीर्थिकों की अनेक शंकाएं या मान्यताएँ उठाकर उनका निराकरण करते हुए यह सिद्ध किया गया है कि ज्ञान, दर्शन, दृष्टि, अज्ञान, संज्ञा, शरीर, कर्म, योग, उपयोग, गति, बुद्धि आदि में प्रवर्तमान जीव एवं जीवात्मा या आत्मा भिन्न-भिन्न नहीं है। जो जीव या आत्मा संसार में प्रवृत्त हैं वे ही मुक्ति को भी प्राप्त करते हैं। चैतन्य की दृष्टि से वे एक हैं। ___एगे आया' सूत्र का अर्थ यह नहीं है कि विश्व में संख्या की दृष्टि से आत्मा एक है। वेदान्त दर्शन ब्रह्म या तुरीय चैतन्य (आत्मा) को संख्या की दृष्टि से एक मानता है तथा संसारी जीवों में उसका ही चैतन्यांश स्वीकार करता है किन्तु जैन दर्शन में आत्मा एक नहीं अनन्त हैं। सभी आत्माएं अपने कृतकर्मों का फल पृथक् रूपेण भोगती हैं। एगे आया' सूत्र में आत्मा को जो एक बतलाया गया है वह चैतन्य की दृष्टि से सभी आत्माओं की एकता या समानता को प्रकट करता है।
आत्मा एवं ज्ञान-दर्शन में परस्पर क्या सम्बन्ध है, इस पर विचार करने पर ज्ञात होता है कि आत्मा कदाचित् ज्ञानरूप है तथा कदाचित् अज्ञानरूप है किन्तु ज्ञान नियमतः आत्मा होता है। अज्ञान का अर्थ ज्ञान का अभाव नहीं है, अपितु मिथ्यादर्शन की उपस्थिति में जो ज्ञान होता है उसे ही अज्ञान कहा जाता है। दर्शन नियमतः आत्मा होता है तथा आत्मा नियमतः दर्शन होता है। इस प्रकार आत्मा ज्ञानदर्शनमय है। चौबीस दण्डकों में से एकेन्द्रिय जीवों के जो पाँच दण्डक हैं उनमें आत्मा अज्ञानरूप होता है, शेष सभी दण्डकों में वह कदाचित् ज्ञानरूप और कदाचित् अज्ञानरूप होता है। पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रियों का अज्ञान नियमतः आत्मरूप होता है तथा आत्मा नियमतः अज्ञानरूप होता है। दर्शन की दृष्टि से समस्त चौबीस दण्डकों में आत्मा दर्शनरूप एवं दर्शन आत्मरूप होता है इसमें कोई विकल्प नहीं है। ___ आत्मा के आठ प्रकार हैं-१. द्रव्यात्मा २. कषायात्मा ३. योग-आत्मा ४. उपयोग-आत्मा ५. ज्ञान-आत्मा ६. दर्शन-आत्मा ७. चारित्र-आत्मा और ८. वीर्यात्मा। आत्मा के ये आठ प्रकार उसका विभिन्न दृष्टिकोणों से प्रतिपादन करते हैं। द्रव्यात्मा तो सभी जीवों में सदैव रहती है, कषाय आत्मा सकषायी जीवों में, योग-आत्मा सयोगी जीवों में, चारित्रात्मा चारित्रयुक्त जीवों में तथा वीर्यात्मा वीर्ययुक्त (पराक्रमी) जीवों में रहती है। उपयोग-आत्मा एवं दर्शन आत्मा सभी जीवों में रहती है। ज्ञान आत्मा कभी ज्ञान के रूप में तथा कभी अज्ञान के रूप में रहती है अतः वह विकल्प से रहती है। द्रव्यात्मा आदि आठ आत्माओं में परस्पर सहभाव का इस आधार पर चिन्तन करने से विदित होता है कि जिसके द्रव्यात्मा होती है उसके कषायात्मा एवं योग-आत्मा कदाचित् होती है और कदाचित् नहीं होती है, किन्तु जिसके कषायात्मा या योग-आत्मा होती है उसके द्रव्यात्मा निश्चित रूप से होती है। जिसके द्रव्यात्मा होती है उसके उपयोग-आत्मा एवं दर्शन-आत्मा निश्चित रूप से होती है तथा जिसके उपयोग-आत्मा या दर्शन-आत्मा होती है उसके द्रव्यात्मा निश्चित रूप से होती है। ज्ञान-आत्मा, चारित्रात्मा एवं वीर्यात्मा के होने पर द्रव्यात्मा निश्चित रूप से होती है किन्तु द्रव्यात्मा के होने पर ये ज्ञान आदि आत्माएँ विकल्प से होती हैं।
जिसके कषाय आत्मा होती है उसके योग-आत्मा, उपयोग-आत्मा, दर्शनात्मा एवं वीर्यात्मा निश्चितरूप से होती है, किन्तु जिसके योग आत्मा, उपयोग आत्मा, दर्शनात्मा या वीर्यात्मा होती है उसके कषाय आत्मा कदाचित् होती है और कदाचित् नहीं। कषायात्मा के साथ ज्ञानात्मा एवं चारित्रात्मा का वैकल्पिक सम्बन्ध है। इस प्रकार प्रस्तुत अध्ययन में आठों आत्माओं के पारस्परिक सहभाव या असहभाव पर विचार संकलित हैं।
इन आठ प्रकार की आत्माओं में सबसे अल्प चारित्रात्मा है, उनसे ज्ञानात्माएँ अनन्तगुणी हैं। उनसे कषायात्माएँ अनन्त गुणी हैं। कषायात्माओं से योगात्माएँ विशेषाधिक हैं तथा उनसे वीर्यात्माएँ विशेषाधिक हैं। उनसे उपयोगात्मा, द्रव्यात्मा एवं दर्शनात्मा तुल्य होकर विशेषाधिक हैं।
शब्द, रूप, गंध, रस एवं स्पर्श का क्रमशः सुनने, देखने, सूंघने, आस्वाद लेने एवं प्रतिसंवेदन करने का कार्य आत्मा दो प्रकार से करता है-शरीर के एक भाग से अथवा समस्त शरीर से।
अवभास, प्रभास, विक्रिया, परिचारणा, भाषा, आहार, परिणमन, वेदन और निर्जरा आदि क्रियाएँ भी आत्मा उपर्युक्त दो प्रकारों से करता है।
प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य, प्राणातिपात विरमण यावत् मिथ्यादर्शनशल्यविवेक, औत्पातिकी यावत् पारिणामिकी बुद्धि, अवग्रह यावत् धारणा, उत्थान यावत् पुरुषकार पराक्रम, नैरयिकत्व यावत् वैमानिकत्व, ज्ञानावरण यावत् अन्तरायकर्म, कृष्ण लेश्या यावत् शुक्ललेश्या, तीनों दृष्टियाँ, चारों दर्शन, पाँचों ज्ञान एवं तीनों अज्ञान, आहारादि चारों संज्ञाएँ, पाँचों शरीर, तीनों योग, साकारोपयोग एवं अनाकारोपयोग तथा इनके जैसे और भी पदार्थ आत्मा के अतिरिक्त अन्यत्र परिणमन नहीं करते हैं। ये सब आत्मा में ही परिणमन करते हैं।
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