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समुद्घात अध्ययन
१७०३ उ. गोयमा ! १. सव्वत्थोवा पुढविकाइया माणसमुग्घाएणं उ. गौतम ! १. सबसे अल्प मानसमुद्घात से समवहत समोहया,
पृथ्वीकायिक हैं, २. कोहसमुग्घाएणं समोहया विसेसाहिया,
२. (उनसे) क्रोधसमुद्घात से समवहत पृथ्वीकायिक
विशेषाधिक हैं, ३. मायासमुग्घाएणं समोहया विसेसाहिया,
३. (उनसे) मायासमुद्घात से समवहत पृथ्वीकायिक
विशेषाधिक हैं, ४. लोभसमुग्घाएणं समोहया विसेसाहिया,
४. (उनसे) लोभसमुद्घात से समवहत पृथ्वीकायिक
विशेषाधिक हैं, ५. असमोहया संखेज्जगुणा।
५. (उनसे) असमवहत पृथ्वीकायिक संख्यातगुणे हैं। दं.१३-२० एवं जाव पंचेंदिय-तिरिक्खजोणिया।
दं. १३-२०. इसी प्रकार पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक तक का
अल्पबहुत्व कहना चाहिए। दं.२१.मणुस्सा जहा जीवा
दं. २१. मनुष्यों (के क्रोधादि समुद्घात) का अल्पबहुत्व
समुच्चय जीवों के समान है। णवरं-माणसमुग्घाएणं समोहया असंखेज्जगुणा।
विशेष-मानसमुद्घात से समवहत मनुष्य असंख्यातगुणे हैं। -पण्ण. प.३६, सु.२१३३-२१४६ १८. केवलि समुग्घायस्स पओजणं कज्ज य परूवणं
१८. केवली समुद्घात के प्रयोजन और कार्य का प्ररूपणप. कम्हा णं भंते ! केवलि समुग्घायं गच्छंति?
प्र. भंते ! किस कारण से केवली समुद्घात अवस्था को प्राप्त
होते हैं? उ. गोयमा ! केवलिस्स चत्तारि कम्मंसा अक्खीणा अवेइया उ. गौतम ! केवली के ये चार कर्मांश क्षीण नहीं हुए हैं, वेदन नहीं अणिजिण्णा भवंति,तं जहा
हुए हैं, निर्जरा को प्राप्त नहीं हुए हैं, यथा१. वेयणिज्जे, २. आउए ३. णामे, ४. गोए।
१. वेदनीय, २. आयु, ३. नाम, ४. गोत्र। सव्वबहुप्पएसे से वेयणिज्जे कम्मे भवइ,
उनका वेदनीयकर्म सबसे अधिक प्रदेशों वाला होता है। सव्वत्थोवे से आउए कम्मे भवइ।
उनका सबसे कम प्रदेशों वाला आयुकर्म होता है। गाहा-विसमं समं करेइ बंधणेहिं ठिईहिय।
गाथार्थ-वे बन्धनों और स्थितियों से विषम (कर्म) को सम विसमसमीकरणयाए बंधणेहिं ठिईहि य॥
करते हैं। एवं खलु केवलि समोहण्णइ,
(वस्तुतः) बन्धनों और स्थितियों से विषम कर्मों का समीकरण
करने के लिए केवली समुद्घात करते हैं। एवं खलु समुग्घायं गच्छइ।
इस प्रकार समुद्घात अवस्था को प्राप्त होते हैं। प. सव्वे विणं भंते ! केवलि समोहण्णंति?
प्र. भंते ! क्या सभी केवली समुद्घात करते हैं? सव्वेविणं भंते ! केवलिसमुग्घायं गच्छंति?
क्या सभी केवली समुद्घात अवस्था को प्राप्त होते हैं? उ. गोयमा ! णो इणढे समढे,
उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। गाहाओ-जस्साऽऽउएण तुल्लाई, बंधणेहिं ठिईहि य।
गाथार्थ-जिसके भवोपग्राही (भव के निमित्त) कर्म बन्धन एवं भवोवग्गहकम्माइं समुग्घायं से ण गच्छइ ॥
स्थिति से आयुष्यकर्म के तुल्य हैं, वह केवली समुद्घात नहीं
करता। जगंतूणं समुग्घायं, अणंता केवली जिणा।
समुद्घात किये बिना अनन्त केवलज्ञानी जिनेन्द्र भगवान् जर-मरणविप्पमुक्का, सिद्धिं वरगई गया ॥१
जरा और मरण से सर्वथा रहित हुए तथा श्रेष्ठ सिद्धगति को -पण्ण.प.३६, सु.२१७०
प्राप्त हुए हैं। १९. केवलिसमुग्घाएण निज्जिण्ण चरिम पोग्गलाणं सुहुमाइ १९. केवलीसमुद्घात से निर्जीर्ण चरम पुद्गलों के सूक्ष्मादि का परूवणं
प्ररूपणप. अणगारस्स णं भंते ! भावियप्पणो केवलिसमुग्घाएणं प्र. भंते ! केवलीसमुद्घात से समवहत भावितात्मा अनगार के जो समोहयस्स जे चरिमा णिज्जरापोग्गला सुहुमा णं ते
चरम (अन्तिम) निर्जरा-पुद्गल हैं, हे आयुष्मन् श्रमण ! क्या पोग्गला पण्णत्ता समणाउसो ! सव्वलोग पिणं ते फुसित्ता
वे पुद्गल सूक्ष्म कहे गए हैं और क्या वे समस्त लोक को स्पर्श णं चिट्ठति?
करके रहते हैं? १. उव.सु.१४१-१४२