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समुद्घात अध्ययन
सेणं एएणं उवाएणं पढम मणजोगं णिरुंभइ
मणजोगं णिरुभित्ता वइजोगं णिरुंभइ, वइजोगं णिरुभित्ता कायजोगं णिरुंभइ, कायजोगं णिरुंभित्ता जोगणिरोहं करेइ, जोगणिरोहं करेत्ता अजोगत्तं पाउणइ, अजोगत्तं पाउणित्ता ईसीहस्सपंचक्खरुच्चारणद्धाए असंखेज्जसमइयं अंतोमुहुत्तियं सेलेसिं पडिवज्जइ,
पुव्वरइयगुणसेढीय च णं कम्मं तीसे सेलेसिमद्धाए असंखेज्जाहिं गुणसेढीहिं असंखेज्जे कम्मखंधे खवयइ,
खवइत्ता वेयणिज्जाऽऽउय-णाम-गोत्ते इच्चेए चत्तारि कम्मसे जुगवं खवेइ, जुगवं खवेत्ता ओरालिय-तेया-कम्मगाई सव्वाहिं विप्पजहण्णाहिं विप्पजहइ, विप्पजहित्ता उजुसेढिपडिवण्णे अफुसमाणगईए एगसमएणं अविग्गहेणं उड्ढे गंता सागारोवउत्ते सिज्झइ जाव सव्वदुक्खाणमंतं करे।।
इस उपाय से वह (केवली) सर्वप्रथम मनोयोग का निरोध करते हैं, मनोयोग को रोक कर वचनयोग का निरोध करते हैं, वचनयोग का निरोध करके काययोग का निरोध करते हैं, काययोग का निरोध करके वे योग का निरोध करते हैं। योग का निरोध करके वे अयोगत्व को प्राप्त कर लेते हैं। अयोग को प्राप्त करके संक्षिप्त पाँच ह्रस्व अक्षरों (अ इ उ ऋ ल) के उच्चारण जितने काल में असंख्यात समय वाले अन्तर्मुहूर्त तक शैलेशी अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं। पूर्वरचित गुणश्रेणियों वाले कर्म को उस शैलेशीकाल में असंख्यात गुणश्रेणियों द्वारा असंख्यात कर्मस्कन्धों को क्षय करते हैं। क्षय करके वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र इन चार कर्मों का एक साथ क्षय करते हैं। इन चार कर्मों का एक साथ क्षय करके औदारिक, तैजस और कार्मण शरीर का पूर्णतया सदा के लिए त्याग कर देते हैं। इन शरीरत्रय का पूर्णतः त्याग करके ऋजुश्रेणी को प्राप्त होकर एक समय की अविग्रह (बिना मोड़) वाली अस्पृशत् गति से ऊर्ध्वगमन कर साकारोपयोग (ज्ञानोपयोग) से उपयुक्त होकर वे सिद्ध होते हैं यावत् सर्वदुःखों का अन्त करते हैं। वे वहाँ सिद्ध हो जाते हैं और अशरीरी, सघनआत्मप्रदेशों वाले, दर्शन ज्ञानोपयोगयुक्त निष्ठितार्थ (कृतकत्य) नीरज (कर्मरज से रहित) निष्कम्प, अज्ञानरूपी अन्धकार से रहित
और विशुद्ध होकर शाश्वत अनागत अनन्तकाल तक स्थित रहते हैं। प्र. भंते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि
"वे सिद्ध वहाँ अशरीरी सघनआत्मप्रदेशयुक्त, कृतार्थ, दर्शनज्ञानोपयुक्त, नीरज, निष्कम्प, वितिमिर एवं विशुद्ध
होकर शाश्वत अनागत अनन्त काल तक स्थित रहते हैं ?" उ. गौतम ! जैसे अग्नि में जले हुए बीजों से फिर अंकुर की उत्पत्ति
नहीं होती, इसी प्रकार सिद्धों के भी कर्मबीजों के जल जाने से पुनः जन्म की उत्पत्ति नहीं होती। इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि"वे सिद्ध वहाँ अशरीरी सघन आत्म प्रदेशयुक्त, कृतार्थ, दर्शनज्ञानोपयोग युक्त, नीरज निष्कम्प वितिमिर एवं विशुद्ध होकर शाश्वत अनागत काल तक स्थित रहते हैं।" सिद्ध भगवान् सब दुःखों से पार हो चुके हैं, वे जन्म जरा, मृत्यु और बन्धन से विमुक्त हो चुके हैं और शाश्वत अव्याबाध सुख को प्राप्त कर सदैव सुखी रहते हैं।
ते णं तत्थ सिद्धा भवंति, असरीरा जीवघणा दंसणणाणोवउत्ता णिट्ठियट्ठा णीरया णिरेयणा वितिमिरा विसुद्धा सासयमणागतद्धं कालं चिट्ठति।
प. से केणतुणं भंते ! एवं वुच्चइ
"ते णं तत्थ सिद्धा भवंति असरीरा जीवघणा दसणणाणोवउत्ता णिट्ठियट्ठा णीरया णिरेयणा वितिमिरा
विसुद्धा सासयमणागयद्धं कालं चिट्ठति?" उ. गोयमा ! से जहाणामए बीयाणं अग्गिदड्ढाणं पुणरवि
अंकुरुप्पत्ती न हवइ एवमेव सिद्धाण वि कम्मबीएस दड्ढेसु पुणरवि जम्मुप्पत्ती न हवइ। से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ"ते णं तत्थ सिद्धा भवंति असरीरा जीवघणा दसण णाणोउवत्ता निट्ठियट्ठा णीरया वितिमिरा विसुद्धा सासयमणागयद्धं कालं चिट्ठति त्ति।" णित्थिण्णसव्वदुक्खा, जाइ-जरा-मरण-बंधणविमुक्का। सासयमव्वाबाहं चिट्ठति सुही सुहं पत्ता॥
-पण्ण.प.३६, सु.२१७५-२१७६
१. गुण श्रेणी की रचना का रूप इस प्रकार का जानना चाहिए
२. उव.सु.१५१-१५५