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( १६५८ ) ६१. पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु उववज्जतेसु सहस्सारपज्जंत
कप्पोवग वेमाणिय देवेसाणं उववायाइ वीसं दारं परूवणं
प. सोहम्मदेवेणं भंते ! जे भविए पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु
उववज्जित्तए से णं भंते ! केवइयं कालट्ठिईएसु
उववज्जेज्जा? उ. गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुत्तट्ठिइएसु, उक्कोसेणं
पुव्वकोडी आउएसु उववज्जंति। . सेसं जहेव पुढविकाइयउद्देसे नवसु वि गमएसु लद्धी भणिया तहेव भाणियव्वा। णवरं-नवसु वि गमएसु जहण्णेणं दो भवग्गहणाई उक्कोसेणं अट्ठभवग्गहणाई। ठिई कालादेसे च उवउंजिऊण जाणेज्जा। एवं ईसाणदेवे वि। एएणं कमेणं अवसेसा वि जाव सहस्सारदेवा वि उववाएयव्वा। णवर-ओगाहणा जहा ओगाहणसंठाणे, .
द्रव्यानुयोग-(३) ६१. पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न होने वाले सहस्रार पर्यन्त
कल्पोपपन्न वैमानिक देवों के उपपातादि बीस द्वारों का प्ररूपणप्र. भन्ते ! सौधर्म देव जो पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न होने
योग्य है तो भन्ते ! वह कितने काल की स्थिति वालों में उत्पन्न
होता है? उ. गौतम ! वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट पूर्व कोटि की स्थिति वालों में उत्पन्न होता है। शेष सब नौ ही गमकों का कथन पृथ्वीकायिक उद्देशक में कही गई लब्धि के अनुसार जानना चाहिए। विशेष-नौ ही गमकों में (संवेध) भवादेश से जघन्य दो भव
और उत्कृष्ट आठ भव ग्रहण करता है। स्थिति और कालादेश उपयोग लगाकर समझना चाहिए। ईशान देव का वर्णन भी इसी प्रकार है। इसी क्रम से सहनारकल्प पर्यन्त के देवों का उपपात आदि सम्पूर्ण वर्णन कहना चाहिए। विशेष-अवगाहना-(प्रज्ञापना सूत्र के इक्कीसवें) अवगाहना संस्थान पद के अनुसार सभी देवों की अलग-अलग जाननी चाहिए। लेश्या-सनत्कुमार, माहेन्द्र और ब्रम्हलोक में एक पद्मलेश्या है। शेष (लान्तक, महाशुक्र और सहस्रार देवलोकों) में एक शुक्ललेश्या है। वेद-ये स्त्रीवेदी और नपुंसकवेदी नहीं होते, केवल पुरुषवेदी होते हैं। आयु, स्थिति और कायसंवेध उपयोगपूर्वक जानने चाहिए।
लेस्सा सणंकुमार-माहिंद-बंभलोएसु एगा पम्हलेस्सा।
सेसाणं एगा सुक्कलेस्सा।
वेदे-नो इत्थिवेदगा, पुरिसवेदगा, नो नपुंसगवेदगा।
आउ अणुबंधो कायसंवेहंच उवउंजिऊण जाणेज्जा।
-विया.स.२४, उ.२०,सु.६३-६५ ६२. णेरइयं पडुच्च मणुस्स उववाय परूवणंप. मणुस्सा णं भंते ! कओहिंतो उववज्जति-किं नेरइएहितो
उववजंति जाव देवेहिंतो उववज्जंति? उ. गोयमा ! णेरइएहिंतो वि उववज्जति जाव देवेहितो वि
उववति। प. भंते ! जइ नेरइएहिंतो उववज्जति-किं
रयणप्पभापुढविनेरएहिंतो उववज्जति जाव अहेसत्तम
पुढवि नेरइएहिंतो उववति ? उ. गोयमा ! रयणप्पभा पुढविनेरइएहितो वि उववज्जंति
जाव तमापुढविनेरइएहितो वि उववज्जंति, नो अहेसत्तमपुढविनेरइएहिंतो उववज्जति।
-विया. स. २४, उ.२१,सु.१ ६३. मणुस्सेसु उववज्जतेसु रयणप्पभाइ तमा पुढवि पज्जंत
नेरइयाणं उववायाइ वीसंदारं परूवणंप. रयणप्पभापुढविनेरइए णं भंते ! जे भविए मणुस्सेसु
उववज्जितए, से णं भंते ! केवइयं कालट्ठिईएसु
उववज्जेज्जा? उ. गोयमा ! जहण्णेणं मासपुहत्तट्ठिईएसु, उक्कोसेणं
पुव्वकोडिआउएसु।
६२. नैरयिकों की अपेक्षा मनुष्यों में उपपात का प्ररूपणप्र. भन्ते ! मनुष्य कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं क्या वे नैरयिकों
से आकर उत्पन्न होते हैं यावत् देवों से आकर उत्पन्न होते हैं ? उ. गौतम ! नैरयिकों से भी आकर उत्पन्न होते हैं यावत् देवों से
भी आकर उत्पन्न होते हैं। प्र. भन्ते ! यदि नैरयिकों से आकर उत्पन्न होते हैं तो क्या रत्नप्रभा
पृथ्वी के नैरयिकों से आकर उत्पन्न होते हैं यावत् अधःसप्तम
पृथ्वी के नैरयिकों से आकर उत्पन्न होते हैं ? उ. गौतम ! रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों से भी आकर उत्पन्न होते
हैं यावत तमःप्रभापृथ्वी के नैरयिकों से भी आकर उत्पन्न होते हैं किन्तु अधःसप्तम पृथ्वी के नैरयिकों से आकर उत्पन्न नहीं
होते हैं। ६३. मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले रत्नप्रभा से तमःप्रभा पृथ्वी पर्यन्त
नैरयिकों के उपपातादि बीस द्वारों का प्ररूपणप्र. भन्ते ! रत्नप्रभापृथ्वी का नैरयिक जो मनुष्यों में उत्पन्न होने
योग्य है तो भन्ते ! वह कितने काल की स्थिति वाले मनुष्यों में
उत्पन्न होता है? उ. गौतम ! वह जघन्य मासपृथक्त्व और उत्कृष्ट पूर्वकोटि वर्ष
की स्थिति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है।