________________
गम्मा अध्ययन
१६६१
सणंकुमारे ठिई चउगुणिया अट्ठावीसं सागरोवमं भवइ,
माहिंदे ताणि चेव साइरेगाणि सागरोवमाणि,
बम्हलोए चत्तालीसं सागरोवम,लंतए छप्पन्नं सागरोवमं।
महासुक्के अट्ठसटिंठ, सहस्सारे बावत्तरिं सागरोवमाई।
एसा उक्कोसा ठिई भणिया। जहण्णट्ठिई पि
चउगुणेज्जा। प. आणयदेवे णं भंते ! जे भविए मणुस्सेसु उववज्जित्तए से
णं भंते ! केवइयं कालट्ठिईएसु उववज्जेज्जा? उ. गोयमा ! जहण्णेणं वासपुहत्तट्ठिईएसु, उक्कोसेणं
पुव्वकोडीट्ठिईएसु उववज्जेज्जा। प. ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवइया उववज्जति? उ. गोयमा ! जहेव सहस्सार देवाणं वत्तव्वया भणिया तहेव
भाणियव्या। णवर-ओगाहणा-ठिई अणुबंधे य उवउंजिऊण जाणेज्जा। भवादेसेणं जहण्णेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं छ भवग्गहणाई। कालादेसेणं जहण्णेणं अट्ठारस सागरोवमाई वासपुहत्तममहियाई, उक्कोसेणं सत्तावन्नं सागरोवमाई तिहिं पुव्वकोडीहिं अब्भहियाई, एवइयं कालं सेवेज्जा, एवइयं कालं गतिरागतिं करेज्जा। एवं नव वि गमा, णवरं-ठिई अणुबंधं संवेहं च उवउंजिऊण जाणेज्जा।(१-९) एवं जाव अच्चुयदेवो, णवरं-ठिई अणुबंधं संवेहं च उवउंजिऊण जाणेज्जा, जहापाणय देवस्स ठिई तिगुणिया सट्ठि सागरोवमाई, आरणगस्स तेवट्ठि सागरोवमाई,
सनत्कुमार देवलोक की उत्कृष्ट स्थिति को चार गुणा करने पर अट्ठाईस सागरोपम होती है। माहेन्द्र देवलोक में चारगुणी स्थिति कुछ अधिक अट्ठाईस सागरोपम होती है। इसी प्रकार स्वयं की उत्कृष्ट स्थिति को चार गुणा करने पर ब्रह्मलोक में चालीस सागरोपम, लान्तक में छप्पन सागरोपम। महाशुक्र में अड़सठ सागरोपम तथा सहनार में बहत्तर सागरोपम होती है। यह उत्कृष्ट स्थिति कही गई है। जघन्य स्थिति को भी चार गुणी
करनी चाहिए। प्र. भन्ते ! आनतदेव जो मनुष्यों में उत्पन्न होने योग्य है तो भन्ते!
वह कितने काल की स्थिति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है ? उ. गौतम ! वह (आनत देव)जघन्य वर्ष पृथक्त्व की और उत्कृष्ट
पूर्वकोटि वर्ष की स्थिति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है। प्र. भन्ते ! वे (मनुष्य) एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? उ. गौतम ! जिस प्रकार सहस्रार देवों का कथन किया है, उसी
प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए। विशेष-इसकी अवगाहना , स्थिति और अनुबन्ध में उपयोग पूर्वक भिन्नता जाननी चाहिए। भवादेश से जघन्य दो भव और उत्कृष्ट छह भव ग्रहण करते हैं। कालादेश से जघन्य वर्ष पृथक्त्व अधिक अठारह सागरोपम
और उत्कृष्ट तीन पूर्वकोटि अधिक सत्तावन सागरोपम जिना काल व्यतीत करता है और इतने ही काल तक गमनागमन करता है। इसी प्रकार नी ही गमकों में जानना चाहिए। विशेष-इनकी स्थिति अनुबन्ध और संवेध उपयोग पूर्वक भिन्न-भिन्न जानना चाहिए।(१-९) इसी प्रकार अच्युतदेव पर्यन्त जानना चाहिए। विशेष-इसकी स्थिति, अनुबन्ध और संवेध उपयोग पूर्वक भिन्न-भिन्न जानना चाहिए, यथाप्राणतदेव की स्थिति को तीन गुणी करने पर साठ सागरोपम, आरणदेव की स्थिति को तीन गुणी करने पर तिरेसठ सागरोपम, अच्युतदेव की स्थिति को तीन गुणी करने पर छासठ
सागरोपम की होती है। ६६. मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले कल्पातीत वैमानिक देवों के
उपपातादि बीस द्वारों का प्ररूपणप्र. भन्ते ! यदि वे मनुष्य कल्पातीत वैमानिक देवों से आकर
उत्पन्न होते हैं तो क्या ग्रैवेयक-कल्पातीत वैमानिक देवों से आकर उत्पन्न होते हैं या अनुत्तरोपपातिक कल्पातीत
वैमानिक देवों से आकर उत्पन्न होते हैं ? उ. गौतम ! वे (मनुष्य) ग्रैवेयक और अनुत्तरोपपातिक दोनों
प्रकार के कल्पातीत देवों से आकर उत्पन्न होते हैं।
अच्युयदेवस्स छावठि सागरोवमाई।
-विया.स.२४, उ.२१, सु. १३-१९ ६६. मणुस्सेसु उववज्जंतेसु कप्पातीय वेमाणिय देवाणं उववायाइ
वीसं दारं परूवणंप. भंते ! जइ कप्पातीय वेमाणियदेवेहिंतो उववज्जति-किं
गेवेज्जाकप्पातीय वेमाणियदेवेहिंतो उववज्जति अणुत्तरोववाइयकप्पातीय वेमाणियदेवेहिंतो
उववज्जति? उ. गोयमा ! गेवेज्जा कप्पातीया अणुत्तरोववाइय कप्पातीया।