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गर्भ अध्ययन ।
एवं पज्जत्तबायरपुढविकाइओ वि(८०)
एवं आउकाइओ वि चउसु वि गमएसु पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहए एयाए चेव वत्तव्ययाए एएसुचेव वीसाए ठाणेसु उववाएयव्यो (१६०) सुहुम तेउकाइओ वि अपज्जत्तओ पज्जत्तओ य एएसुचेव
वीसाए ठाणेसु उववाएयव्यो (४० =२००) । प. अपज्जत्तबायरतेउकाइए णं भंते ! मणुस्सखेत्ते समोहए,
समोहणित्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पच्चत्थिमिल्ले चरिमंते अपज्जत्तसुहमपुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए से णं भंते ! कइ समइएणं विग्गहेणं
उववज्जेज्जा? उ. गोयमा ! सेसं तहेव जाव से तेणट्टेणं विग्गहेणं
उववज्जेज्जा। (१ = २0१)
इसी प्रकार पर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक के उपपात का कथन करना चाहिए।(८०) इसी प्रकार अकायिक जीवों का भी चार गमकों द्वारा पूर्वी चरमान्त में मरण समुद्घात से मरकर इन्हीं पूर्वोक्त बीस स्थानों में पूर्ववत् उपपात का कथन करना चाहिए। (१६०) अपर्याप्त और पर्याप्त सूक्ष्म तेजस्कायिक जीवों का भी इन्हीं
बीस स्थानों में पूर्ववत् उपपात कहना चाहिए।(४0 = २००) प्र. भंते ! अपर्याप्त बादर तेजस्कायिक जीव, जो मनुष्य क्षेत्र में
मरणसमुद्घात करके रत्नप्रभापृथ्वी के पश्चिमी चरमान्त में अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक के रूप में उत्पन्न होने योग्य है तो भंते ! वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है?
एवं पुढविकाइएसु चउव्विहेसु वि उववाएयव्यो। (३ = २०४) एवं आउकाइएसुचउव्विहेसु वि।(४ =२०८)
तेउकाइएसु सुहुमेसु अपज्जत्तएसु पज्जत्तएसु य एवं चेव
उववाएयव्यो। (२ = २१०) प. अपज्जत्तबायरतेउकाइए णं भंते ! मणुस्सखेत्ते समोहए,
समोहणित्ता जे भविए मणुस्सखेत्ते अपज्जत्तबायरतेउकाइयत्ताए उववज्जित्तए,
से णं भंते ! कइ समइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा? उ. गोयमा ! सेसं तं चेव। (१ = २११)
एवं पज्जत्तबायरतेउकाइयत्ताए वि उववाएयव्यो। (१ = २१२) वाउकाइयत्ताए य, वणस्सइकाइयत्ताए य जहा पुढविकाइएसु तहेव चउक्कएणं भेएणं उववाएयव्यो। (८ = २२०) एवं पज्जत्तबायरतेउकाइओ वि समयखेत्ते समोहणावेत्ता एएसु चेव वीसाए ठाणेसु उववाएयव्यो जहेव अपज्जत्तओ उववाइओ (२०) एवं सव्वत्थ वि बायरतेउकाइया अपज्जत्तगा पज्जतगा य समयखेत्ते उववाएयव्या, समोहणावेयव्या वि (= २४०)
उ. गौतम ! इस कारण से वह तीन समय की विग्रहगति
से उत्पन्न होता है पर्यन्त समग्र कथन पूर्ववत् करना चाहिए।(१ = २०१) इसी प्रकार चारों प्रकार के पृथ्वीकायिक जीवों में भी पूर्ववत् उपपात कहना चाहिए। (३-२०४) चार प्रकार के अप्कायिकों में भी इसी प्रकार उपपात कहना चाहिए। (४ = २०८) सूक्ष्मतेजस्कायिक जीव के पर्याप्त और अपर्याप्त में भी इसी
प्रकार उपपात कहना चाहिए। (२ = २१०) प्र. भंते ! अपर्याप्त बादर तेजस्कायिक जीव, जो मनुष्य क्षेत्र में
मरणसमुद्घात करके मनुष्यक्षेत्र में अपर्याप्त बादर तेजस्कायिक रूप में उत्पन्न होने योग्य है,
तो भंते ! वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है? उ. गौतम ! इसका उपपात पूर्ववत् कहना चाहिए।(१ = २११)
इसी प्रकार पर्याप्त बादर तेजस्कायिक रूप में भी उपपात का कथन करना चाहिए (१ = २१२) जिस प्रकार पृथ्वीकायिक जीवों के चार भेदों का उपपात कहा उसी प्रकार वायुकायिकों और वनस्पतिकायिकों के रूप से भी उपपात का कथन करना चाहिए (८ = २२०) इसी प्रकार पर्याप्त बादर तेजस्कायिक का भी समय (मनुष्य) क्षेत्र में समुद्घात करके इन्हीं (पूर्वोक्त) बीस स्थानों में उपपात का कथन करना चाहिए। (२०) इसी प्रकार सर्वत्र पर्याप्त और अपर्याप्त बादर तेजस्कायिक का मनुष्यक्षेत्र में उपपात और समुद्घात का कथन करना चाहिए। (२४०) पृथ्वीकायिक के उपपात के समान वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीवों के चार-चार भेदों का उपपात कहना
चाहिए यावत्प्र. भंते ! पर्याप्त बादर वनस्पतिकायिक जीव इस रलप्रभापृथ्वी
के पूर्वी चरमान्त में मरणसमुद्घात करके इस रत्नप्रभापृथ्वी के पश्चिमी चरमान्त में पर्याप्त बादर वनस्पतिकायिक रूप में उत्पन्न होने योग्य हो तो,
वाउकाइया, वणस्सइकाइया य जहा पुढविकाइया तहेव चउक्कएणं भेएणं उववाएयव्या जाव
प. पज्जत्तबायरवणस्सइकाइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए
पुढवीए पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणेत्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पच्चत्थिमिल्ले चरिमंते पज्जत्तबायरवणस्सइकाइयत्ताए उववज्जित्तए